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१२वीं से १५वीं सदी के मध्य जैन समुदाय की स्थिति
डॉ० शिवशंकर श्रीवास्तव
विद्वान् लेखक का यह आलेख १२वीं से १५वीं सदी के मध्य जैन समुदाय की स्थिति का समीचीन एवं प्रमाणिक चित्रण प्रस्तुत करता है। लेखक ने आचार्य हेमचंद के त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित, प्रभाचंद्रसूरी का प्रभावक चरित्र, जिनप्रभसूरी का विविध तीर्थकल्प इत्यादि जैन ग्रन्थों तथा विविध पंथों की पट्टावलियों के आधार पर उस समय में जैन समुदाय की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इस अवधि में जैन समुदाय संपूर्ण भारत में कहीं उन्नत दशा में था तो कहीं अवनत दशा में | राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश इसकी उन्नत दशा के साक्षी रहें हैं। जैन धर्म के विकास में तुगलक
वंश, खिलजी वंश तथा सुल्तानों के योगदान को भी चित्रित किया गया है। लेखक का यह कार्य अत्यन्त ही श्रम साध्य रहा है तथा हम आशा करते हैं कि लेखक की लेखनी ऐसे विषयों पर निरन्तर चलती रहे। -सम्पादक
जैन समुदाय एक समर्पित, त्यागी, भिक्षु मनोवृत्ति प्रधान और धनी उपासक वर्ग के रूप में हमारे समक्ष अतीत काल से विख्यात रहा है। जैनियों के लिए ऐतिहासिक वृतान्तों में भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्राचीन यूनानी वृतान्तों और अशोक के शिलालेखों में जैनियों के लिए श्रवण शब्द का प्रयोग किया गया है। चीनी यात्री युवान- च्वांग (वेनत्सांग ) अपनी यात्रा वृतान्त “शी - यू-ची" में विवरण देता है कि जैनियों में प्रमुख शिष्य भिक्षु और गौण शिष्य श्रमणेर कहलाते थे। जैन स्रोतों में कहा गया है कि मध्यकाल के प्रारम्भ में उनका समुदाय खासतौर पर वाणिज्य वर्ग, अर्थात् महाजनों, सूदखोरों या सौदागरों पर आधारित था। सौदागरों और सूदखोरों के लिए बरनी ने मुल्तानी' शब्द का प्रयोग किया है।
दिल्ली सल्तनत के फारसी वृतान्तों में जैन समुदाय के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होती है । अतः १२वीं से १५वीं सदी के मध्य जैन समुदाय की स्थिति के बारे में जानकारी का मुख्यस्रोत जैन स्रोत ही हैं। जैनियों के प्रारम्भिक इतिहास को जानने का मुख्य स्रोत आचार्य हेमचंद ( १२वीं सदी) कृत “त्रिषष्टिशलाका - पुरुषचरित' (The Lives of Sixty- Three Illustrious Persons) है, जिसे आचार्य ने स्वयं महाकाव्य कहा है। इस कृति को जैन रामायण के नाम से भी जाना जाता है। इस ग्रंथ के परिशिष्ट पर्व में इसकी टीका भी उपलब्ध है।" जैन ग्रंथ " लेख