Book Title: Sramana 2013 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 41
________________ 34 : श्रमण, वर्ष 64, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2013 पद्धति” से राज्य के दस्तावेजों तथा प्राचीन एवं पूर्व मध्यकालीन गुजरात (९वीं से १५वीं शताब्दी) के दैनिक जीवन विषयक जानकारी प्राप्त होती है। जैन स्रोतों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान अंग-प्रबन्ध का है, जिनमें ऐतिहासिक परम्पराओं और कथाओं का समावेश है। इन स्रोतों में प्रभाचंद्रसूरी का 'प्रभावक चरित' (१२७७), मेरुतुंग का 'प्रबन्ध चिंतामणि' (१३०६), राजशेखर का 'प्रबन्धकोष' (१३०८), जिनप्रभसूरी का 'विविध तीर्थकल्प' (१३२६-३१) तथा सर्वानन्द का 'जगदुचरित' (१४वीं सदी) आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जिनविजय मुनि ने पुरातन प्रबन्ध संग्रह में १३वीं और १४वीं सदी के बहुत से दूसरे प्रबन्धों को संकलित और संपादित किया है। इसके अलावा जैन समुदाय के बारे में जानकारी जैन काव्यसंग्रहों से भी मिलती है, जो अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी में उपलब्ध हैं। जैन आचार्यों ने नाटक भी लिखे हैं। यशचन्द्र का 'कुमुदचन्द्र' (१२२४ई.), जयसिंह का 'हम्मीर-मद-मर्दन' यशपाल का 'मोहराज-पराजय' (१२०३ई०), मेघप्रभाचार्य का 'धर्माभ्युदय' महत्त्वपूर्ण हैं। 'गाथासहस्त्री' (१३६०ई०) भी उल्लेखनीय है। इन नीतिग्रन्थों में जैनों के प्रिय विषय वैराग्य, स्त्री-निन्दा, ब्राह्मण-निन्दा, त्याग इत्यादि पर प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा विभिन्न जैन पंथों की पट्टावलियाँ (जैन मुनियों की सूचियां) जैसेखरतरगच्छ और तपागच्छ आदि से भी जैन समुदाय की स्थिति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इन पट्टावलियों द्वारा सल्तनतकालीन सुल्तानों से जैन मुनियों के सम्बन्धों तथा सुल्तानों द्वारा दी गयी सुविधाओं की जानकारी के साथ-साथ जैन आचार्यों के यात्रा-वृतान्त का भी विवरण प्राप्त होता है। खरतरगच्छ पट्टावली (रचना १३३६-३७ई०) स्रोत से हमें विदित होता है कि जैनी सुल्तानों के इलाके में, उनकी आज्ञा लेकर तीर्थ यात्राएं करते थे, मूर्तियाँ लगाते थे, मंदिरों का निर्माण और मरम्मत कराते थे। खरतरगच्छ पट्टावली में विवरण मिलता है कि राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण ११९१ई० में जिनपतिसूरी अजमेर को छोड़कर लवणखेत में रणक केल्हण के पास जाकर रहने लगे। आगे यह भी विवरण मिलता है कि ११९३ई० में, अणहिल्ल पट्टन में उथल-पुथल के बावजूद जैन गृहस्थ और आचार्य स्वतंत्रतापूर्वक धार्मिक कार्य सम्पन्न करते रहे, जैसे- जैन मुर्तियों को प्रतिष्ठित करना, भिन्न-भिन्न स्थानों पर धार्मिक समारोह आयोजित करना। अणहिलवाड़ा पट्टन का राजकुमार पाल जैन धर्म का अनुयायी और संरक्षण प्रदान करने वाला था।१२

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