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रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान
प्रथमावस्था में साधक किसी आलम्बन का आधार ग्रहण कर ध्यान-साधना में प्रवृत्त होता है। आलम्बन के आधार पर किये गये ध्यान को सालम्बन ध्यान कहा गया है। आचार्यों ने ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के चार प्रकार किये हैं- पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत' । पिण्ड अर्थात् शरीर सहित आत्मा का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। पदस्थ ध्यान का अर्थ है - पदों या अक्षरों पर ध्यान केन्द्रित करना अर्थात् पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो चिन्तन किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है। प्रस्तुत लेख में हम रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान का वर्णन करेंगे।
१. रूपस्थ ध्यान
प्रभु का, अर्हत् जिनेन्द्र देव का, समवसरण में विद्यमान भगवान् तीर्थंकर का ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है । भक्तामर स्तोत्र का अधोविन्यस्त श्लोक जिसमें भगवान् के रमणीय रूप का वर्णन है, उसका ध्यान रूपस्थ ध्यान कहा जाएगा - सिंहासने मणिमयूख शिखा विचित्रे विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् बिम्बं वियद् विसदंशुलता वितानं तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्ररश्मेः ।। २ अर्थात् मणि किरणों की शिखाओं के विचित्र सिंहासन पर तुम्हारा कंचन के तुल्य शरीर ऐसे शोभित हो रहा है, मानो ऊँचे उदयाचल के शिखर पर आकाश में चमकती हुई किरण - लताओं वाला सूर्य बिम्ब ।
श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५
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इस आकृति का ध्यान रूपस्थ ध्यान है। आचार्यों ने इसकी अनेक परिभाषाएँ दी हैं -
डॉ० हरिशंकर पाण्डेय *
१. जब समवसरण में स्थित अरिहन्त भगवान का ध्यान किया जाता है तब उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । ३
* अध्यक्ष एवं उपाचार्य विश्वविद्यालय, वाराणसी
२. अनन्यशरण होकर परमेष्ठी का चिन्तन रूपस्थ ध्यान है |
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३ . रूपस्थ सर्वचिद्रूपम्' अर्थात् सर्वचिद्रूप का ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। ४. चिन्तन जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते ।
अर्थात् जिनरूप का चिन्तवन करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है, अर्थात् जिन रूप का चिन्तन रूपस्थ ध्यान का ध्येय है।
प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत
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