Book Title: Sramana 1994 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 5
________________ डॉ. रत्ना श्रीवास्तवा की ही विभावावस्था है । द्रव्य कर्मों के कारण ही ( भावकर्म) कषायों की भी उत्पत्ति होती है। आत्मा अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप या साक्षी भाव को भूलकर अपने को कर्त्ता और भोक्ता मानने लगता है। इन्हीं की चर्चा तत्त्वार्थसूत्र में सकपायाकपाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः (तत्त्वार्थसूत्र, 6 / 5 ) के रूप में है अर्थात् कर्म के दो पक्ष हैं, साम्परायिक एवं ईर्यापथिक । जो कर्म कषाययुक्त हैं वे साम्परायिक एवं जो कषायरहित हैं वे ईर्यापथिक हैं। आत्मा का पराभव करने वाला कर्म साम्परायिक कहलाता है, जैसे गीले चमड़े के ऊपर हवा द्वारा पड़ी हुई रज उससे चिपक जाती है, वैसे ही योग द्वारा आकृष्ट होने वाला कर्म कषायोदय के कारण आत्मा के साथ सम्बद्ध होकर बन्ध स्थिति पा लेता है वह साम्परायिक कर्म है। सूखी दीवाल के ऊपर लगे हुए सूखे गोले की तरह योग से आकृष्ट जो कर्म कपायोदय न होने से आत्मा के साथ लगकर तुरन्त ही छूट जाता है वह ईर्यापथिककर्म कहलाता है। • जैनदर्शन में आठ प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयुष्य, 6 नाम, 7. गोत्र, और 8. अन्तराय । इन अष्टकर्मों में आत्मा के स्वभाव के आवरण की दृष्टि से चार घाती एवं चार अघाती कर्म माने गये हैं। चूँकि चार घाती कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि स्वभाव को आवरित करते हैं, आत्मा की स्वाभाविक दशा को विकृत करते हैं एवं जीवन मुक्ति में बाधक होते हैं। इस कारण इन्हें घाती अर्थात् घात करने वाला बताया गया है। इन्हें भाव कर्म के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इसके विपरीत अघातीकर्म हैं, जो न तो आत्मा की स्वाभाविक दशा को विकृत करते हैं और न ही भावी बन्धन के कारण होते हैं। -- कर्म की दस अवस्थाओं का भी उल्लेख मिलता है। 1. बन्ध, 2. संक्रमण, 3. उत्कर्षण, 4. अपवर्तन, 5. सत्ता, 6. उदय, 7. उदीरणा, 8. उपशमन, 9. निधत्ति और 10. निकाचना । --- कर्मविपाक एवं फलभोग की चर्चा कर्म के उपर्युक्त संक्षिप्त परिचय के पश्चात् अब हम उस सामान्य मानवजिज्ञासा की ओर बढ़ेंगे जो प्रायः उलझ कर ही रह जाती है। वह सहज जिज्ञासा यह है कि हम जो भी कर्म करते हैं क्या उन सभी का एक नियत समय पश्चात् या अनियत रूप से विपाक होता है ? तथा उस विपाक के पश्चात् सभी कर्म हमें एक निश्चित समय से फलोपभोग भी कराते हैं ? क्या सभी मनुष्य स्वकृत कर्मों का फलोपभोग अवश्य ही करते हैं, इस जन्म में या अगले जन्म में? क्या कर्मों के फलों का संविभाग होता है ? या नहीं आदि । मानव जो भी कर्म करता है चाहे वो नैतिक हो या अनैतिक, कल्याणप्रद हो या दुःखद, शुभ हो या अशुभ, कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता है ऐसा नीतिशास्त्रियों की मान्यता है। इस विचार के अनुसार हमें तो यही निष्कर्ष निकलता प्रतीत होता है कि हमारे द्वारा जो भी कर्म किया जाता है वह पहले तो संचित हो जाता है, फिर बाद में कर्मों का विपाक काल आने पर उससे शुभ या अशुभ परिणाम निकलता है। भारतीय नीति विचारकों में से कुछ ने तो यह माना है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 78