Book Title: Sramana 1994 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 3
________________ कर्म की नैतिकता का आधार -- तत्त्वार्थसूत्र के प्रसंग में - डॉ. रत्ना श्रीवास्तवा दृश्यमान जगत में समस्त जीव जीवन पर्यन्त मनसा, वाचा, कर्मणा कर्म करते रहते हैं। इस विश्व की उत्पत्ति, कर्म द्वारा ही हुई है। जीवन का अपरनामकरण कर्म है, यही जीवन है, क्योंकि कर्म ही गति, चेप्टा एवं परिवर्तन है। मानव जीवन और कर्म का सम्बन्ध जन्म-जन्मांतर से है। उसका वर्तमान जीवन भी कर्म-श्रृंखला की एक कड़ी है। समस्त प्राणी जीवन-पर्यन्त अथ से इति तक कर्मानुशासित हैं। जहाँ जीवन है वहाँ कर्म से मुक्ति सम्भव नहीं है। मनुष्य का यह संकल्प या विचार कि उसने समग्न कर्मों का त्याग कर दिया है -- एक भ्रम है क्योंकि वस्तुतः कर्म त्याग भी एक कर्म ही है। जब तक हम शरीरयुक्त हैं, एक क्षण भी कर्मों से पृथक् नहीं हो सकते। कर्म हमारी नियति है, जिसके वशीभूत होकर ही हम इस संसार-चक्र में आवागमन से मुक्त नहीं हो पाते हैं, पुनः-पुनः जन्म ग्रहण करते हैं। विभिन्न विचारकों ने कर्म-विषयक भिन्न-भिन्न विचार अभिव्यक्त किये हैं। प्रश्न उठ सकता है कि आखिर उन विचारकों ने कर्म का वर्णन क्यों किया ? इसका इस जगत में क्या उपयोग है ? क्या महत्ता है ? जहाँ तक महत्ता की बात है, तो वह बहुत कुछ उपर्युक्त कथनों से निष्कर्ष निकाल कर समझा जा सकता है किन्तु उपयोग के विषय में सबसे बड़ा प्रमाण मिलता है -- कर्म का जन-मानस के ऊपर पड़ा प्रभाव। यद्यपि कर्म अदृश्य है और यही कारण है कि, वैज्ञानिकों ने इसके अस्तित्व को नकारा भी है, किन्तु यह एक कटु-सत्य है कि मानवजाति का कर्मों के प्रति एक अटूट विश्वास है अर्थात् सत्कर्म शुभ परिणामी एवं असत्कर्म अशुभ परिणामी होते हैं - ऐसा जन-विश्वास है। वर्तमान अराजकता, भ्रष्टाचार, अनैतिकता से व्याप्त युग में यदि कहीं अल्पमात्र भी नैतिकता अवशेष रह गई है तो उसके पीछे एक मात्र कारण है हमारी, हमारे कर्मों के प्रति यही आस्था। हमारे अन्तःकरण में यह बात पूर्णतः जमी हुई है कि यदि हम दुष्कर्म करेंगे तो उसके परिणामों को भी भोगना पड़ेगा। आज प्रशासन भले ही विभिन्न दण्ड-सिद्धान्तों की सहायता लेकर अपराधियों को भयभीत करने या सुधारने का पूर्णतः प्रयास कर रहा है एवं सफल भी हो रहा है किन्तु कर्मफल के भयवश अपराध न करने वालों की संख्या अभी भी अधिक है। तात्पर्य यही है कि मानवजाति को कर्म-आस्था ही अनैतिकता से नैतिकता की ओर ले जा सकती है। यद्यपि विभिन्न विचारकों ने कर्म-विचारों की परस्पर आलोचनाएँ तो की ही है, किन्तु कर्म विचार की उपर्युक्त उपयोगिता व्यावहारिक दृष्टि से तो है ही, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। संस्कृत की 'डुकृत्रकरणे' धातु से निष्पन्न कर्म शब्द का सामान्य अर्थ है -- कार्य या चेष्टा, जिसका प्रबल या दुर्बल कोई एक संस्कार मानव-चित्त पर पड़ता है। इन संस्कारों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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