Book Title: Shatkhandagama Pustak 15
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 16
________________ ( ५ ) प्रसंग दुर्निवार है उसी प्रकार सर्वथा अभाव ( शून्यैकान्त) को स्वीकार करनेवाले माध्यमिकों के यहाँ अनुमानादि प्रमाणके असम्भव होनेसे स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षको दूषित न कर सकने का भी प्रसंग अनिवार्य होगा । परस्पर निरपेक्ष उभयस्वरूपता (सदसदात्मकता) को स्वीकार करनेवाले भाट्टों के समान साँख्यों के यहाँ भी परस्परपरिहारस्थि तलक्षण विरोधको सम्भावना है ही । कारण कि वह (उभयस्वरूपता ) स्याद्वाद सिद्धान्तको स्वीकार किये बिना बन नहीं सकती । पूर्वोक्त दोषोंके परिहारकी इच्छासे बौद्ध जो सर्वथा अनिर्वचनीयताको स्वीकार करते हैं वे भी भला ' तत्त्व अनिर्वचनीय है' इस प्रकारके वचनके बिना अपनी अभीष्ट तत्त्वव्यवस्थाका बोध दूसरोंको किस प्रकारसे करा सकेंगे? इस प्रकार सर्वथा सदसदादि एकान्त पक्षोंकी समीक्षा करते हुए यहां इन सात भंगोंकी योजना की गयी है । यथा १ स्वद्रव्य; क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वस्तु कथंचित् सत् ही है । २ वही परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा कथंचित् असत् ही है । ३ क्रमसे स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादिकी विवक्षा होनेपर वह कथंचित् सदसत् (उभय स्वरूप ) ही है । ४ युगपत् स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनोंकी विवक्षा में वस्तु कथंचित् अवाच्य ही है । इन चार मुख्य भंगों का निर्देश तो ' कथंचित्ते सदेवेष्टं ' इत्यादि कारिकामें ही कर दिया गया है। शेष तीन भंग 'च' शब्दसे सूचित कर दिये गये हैं । वे इस प्रकार हैं- ५ कथंचित् वस्तु सत् और अवक्तव्य ही है । ६ कथंचित् वह असत् और अवक्तव्य ही है । ७ कथंचित् वह सत्-असत् और अवक्तव्य ही है । इन तीन भंगोंमें यथाक्रमसे स्वद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादि, परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादि और क्रमसे स्व-परद्रव्यादि तथा युगपत् स्व-परद्रव्यादिकी विवक्षा की गयी है । यहाँ जो आप्तमीमांसाकी ' कथंचित् ते सदेवेष्टं ' आदि कारिका उद्धृत की गयी है ठीक उसी प्रकारकी प्राकृत गाथा पंचास्तिकाय में पायी जाती है । यथा- सिय अस्थि णत्थि उभयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि || प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमके भेदसे प्रक्रम तीन प्रकारका बतलाया गया है । इनमें प्रकृतिप्रक्रमको भी मूलप्रकृतिप्रक्रम और उत्तरप्रकृतिप्रक्रम इन दो भेदोंमें विभक्त कर यथाक्रम से उनके अल्पबहुत्वकी यहाँ प्ररूपणा की गयी है । अन्तमें स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रमको भी संक्षेप में प्ररूपणा करके इस अनुयोगद्वारको समाप्त किया गया है । ९ उपक्रम - प्रक्रमके समान ही उपक्रमके भी ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-- नामउपक्रम, स्थापनाउपक्रम, द्रव्यउपक्रम, क्षेत्रउपक्रम, कालउपक्रम और भावउपक्रम । यहाँ कर्मउपक्रमको अधिकारप्राप्त बतलाकर उसके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-- बन्धनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशामनोपक्रम और विपरिणामोपक्रम | यहाँ प्रक्रम और उपक्रममें विशेषताका उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि प्रक्रम प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आनेवाले प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करता है जब कि उपक्रम बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर सत्त्व स्वरूपसे स्थित कर्मपुद्गलोंके व्यापारकी प्ररूपणा करता है । बन्धनोपक्रम भी यहाँ प्रकृति व स्थिति आदिके भेदसे चार भेद बतलाकर उनकी प्ररूपणा सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतके समान करना चाहिये, ऐसा उल्लेखमात्र किया है । यहाँ यह आशंका उठायी गयी है कि इनकी प्ररूपणा जैसे महाबन्धमें की गयी है तदनुसार ही वह यहाँ क्यों न की जाय ? इसके समाधान में बतलाया है कि महाबन्ध में चूंकि प्रथम समय सम्बन्धी बन्धका आश्रय लेकर वह प्ररूपणा की गयी है। अतएव तदनुसार यहाँ उनकी प्ररूपणा करना इष्ट नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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