Book Title: Shatkhandagama Pustak 14 Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh SolapurPage 16
________________ नहीं बढते । केवली होने के समय शरीरकी जो अवस्था रहती है, आयुके अन्तिम समय तक वही अवस्था बनी रहती है, सो इन सब बातोंका रहस्य इस मान्यतामें छिपा हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उनके शरीरमेंसे हड्डी आदिका अभाव हो जाता है। जो चीज जैसी होती है वह वैसी ही बनी रहती है। मात्र उसमें से बादर निगोद जीव और उनके आधारभूत ऋमिका अभाव हो जाने से वह उस प्रकार पुद्गलका सञ्चयमात्र रह जाता है। उदाहरणके लिए दूध लीजिए । गायके स्तनोंसे दूध निकालनेपर कुछ कालमें उसमें जीवोत्पत्ति होने लगती है, पर अग्नि पर अच्छी तरहसे तपा लेनेपर उसमें कुछ काल तक जीवोत्पत्ति नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूध ही नहीं रहता । दूध तो उस अवस्थामें भी बना रहता है। इस प्रकार जो बात दूधके विषयमें है वही बात केवली जिनके शरीरके और उसकी धातुओं और उपधातुओंके विषयमें भी जाननी चाहिए । _इस प्रकार क्षपितकांश विधिसे आए हुए क्षीणकषाय जीवके अन्तिम समयमें प्राप्त शरीरमें जघन्य बादरनिगोदवर्गणा होती है। तथा स्वयम्भूरमणद्वीपके कर्मभूमिसम्बन्धी भागमें मूलीके शरीरमें उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। मध्यमें नाना जीवोंका आश्रय लेकर य बादरनिगोदवर्गणायें अनेक विध होती हैं। तीसरी विचारणीय सूक्ष्मनिगोदवर्गणा है। बादर और सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें अन्तर यह है कि बादरनिगोदवर्गणा दूसरेके आश्रयसे रहती है और सूक्ष्म निगोदवर्गणा जलमें, स्थलमें व आकाशमें सर्वत्र विना आश्रयके रहती है। क्षपित कशिविधिसे और क्षपित घोलमान विधिसे आये हुए जो सूक्ष्म निगोद जीव होते हैं उनके यह सूक्ष्म निगोद वर्गणा जघन्य होती है। यह तो आगमप्रसिद्ध बात है कि एक निगोद जीव अकेला नहीं रहता । अनन्तानन्त निगोद जीवोंका एक शरीर होता है। असंख्यातलोकप्रमाण शरीरोंकी एक पुलवि होती है और आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंका एक स्कन्ध होता है। यहाँ ऐसे सूक्ष्म स्कन्धकी एक जघन्य वर्गणा ली गई है। तथा उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा एक बन्धनबद्ध छह जीवनिकायोंके संघातरूप महामत्स्य के शरीर में दिखलाई देती है। ये अपने जघन्यसे उत्कृष्ट तक निरन्तर क्रमसे पाई जाती हैं। बादर निगोद वर्गणाओंमें जिस प्रकार बीच-बीच में अन्तर दिखलाई देता है उस प्रकार इनमें नहीं दिखलाई देता। चौथी विशेष वक्तव्य योग्य महास्कन्धद्रव्यवर्गणा है। यह वर्गणा आठों पथिवियाँ, भवन और विमान आदि सब स्कन्धोंके संयोगसे बनती है । यद्यप इन सब पृथिवी आदिमें अन्तर दिखलाई देता है, पर सूक्ष्म स्कन्धों द्वारा उनका परस्पर सम्बन्ध बना हुआ है, इसलिए इन सबको मिलाकर एक महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा मानी गई है। इसप्रकार ये कुल तेईस वर्गणायें हैं। इनमें से आहारवगंणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा मनोवर्गणा और कार्मणशरीरवर्गणा ये पाँच वर्गणायें जीवद्वारा ग्रहण योग्य हैं, शेष नहीं। इन वर्गणाओंका प्रमाण कितना है, पिछली वगंणासे अगली वर्गणा किस क्रमसे चाल होती है, अपनी जघन्यसे अपनी उत्कृष्ट कितनी बडी है आदि प्रश्नोंका समाधान मलको देखकर कर लेना चाहिए । यहां तक एकश्रेणिवर्गणाओंका विचार करके आगे नानाश्रेणिवर्गणाओंका विचार करते हुए कौन वर्गणा कितनी होती है यह बतलाया गया है । एकश्रेणिवर्गणामें जातिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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