Book Title: Shatkhandagama Pustak 12 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati View full book textPage 8
________________ विपया परिचय वेदना अनुयोगद्वारके मुख्य अधिकार सोलह हैं। उनमेंसे जिन अन्तिम दस अधिकारों की इस पुस्तकमें प्ररूपणा की है। उनके नाम ये हैं-वेदनाभावविधान, वेदनाप्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्वविधान, वेदनावेदनाविधान, वेदनागतिविधान, वेदनाअनन्तरविधान, वेदनासनिकर्षविधान, वेदनापरिमाणविधान, वेदनाभागाभागविधान और वेदनाअल्पबहुत्वविधान । ७ वेदनांभावविधान भावके चार भेद हैं-नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव । उनमें से भाव शब्द नामभाव है तथा सद्भाव या असद्भावरूपसे 'वह यह है' इस प्रकार अभेदरूपसे सङ्कल्पित पदार्थ स्थापनाभाव है। द्रव्यभावके दो भेद हैं-आगमद्रव्यभाव और नोआगमद्रव्यभाव । भावविषयक शास्त्रका जानकार किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यभाव है। नोबागमद्रव्यभाव तीन प्रकारका है-ज्ञायकशरीर, भावी और तद्वयतिरिक्त । जो भावविषयक शास्त्रके जानकारका त्रिकालविषयक शरीर है वह ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यभाव है और जो भविष्यमें भावविषयक शास्त्रका जानकार होगा वह भाविनोआगमद्रव्यभाव है। तद्वयतिरिक्तनोागमद्रव्यभावके दो भेद हैं-कर्म और नोकर्म । ज्ञानावरणादि कर्मोंकी अज्ञानादिको उत्पन्न करानेवाली जो शक्ति है उसे कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव कहते हैं और इसके सिवा अन्य जितनी सचित्त और अचित्तद्रव्य सम्बन्धी शक्तियाँ हैं उन्हें नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव कहते हैं। भावभावके दो भेद हैं-आगमभावभाव और नोआगमभावभाव । भावविषयक शास्त्रका जानकार और उपयोगयुक्त जीव आगमभावभाव कहलाता है तथा नोपागमभावभावके दो भेद हैं-तीव्रमन्दभाव और निर्जराभाव ।। इन सब भावों मेंसे वेदनाभावविधानमें कर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यभावकी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। पदमीमांसामें ज्ञानावरणादि आठ मूल कर्मोंको उस्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य भाववेदनाओंका विचार किया गया है। यहाँ वीरसेन स्वामीने धवला टीकामें उत्कृष्ट आदि पूर्वोक्त चार पदोंके साथ सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोमनोविशिष्ट इन अन्य नौ पदोंको देशामर्षकभावसे सूचित कर इन तेरह पदोंके परस्पर सन्निकर्षकी भी प्ररूपणा की है। मात्र ऐसा करते हुए वे कहाँ किस अपेक्षासे उत्कृष्ट आदि पद स्वीकार किये गये हैं इस दृष्टिकोणका पृथक् पृथक् रूपसे उल्लेख करते गये हैं। इसके लिए प्रस्तुत पुस्तकका पृष्ठ ग्यारहका कोष्टक दृष्टव्य है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे इन उस्कृष्ट श्रादि चार पदोंकी अपेक्षा स्वामी बतलाये गये हैं। अल्पबहत्त्व अनुयोगद्वारके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ऐसे तीन भेद करके इनके द्वारा अलग अलग आठ मूल प्रकृतियोंके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार तो किया ही है, साथ ही उत्तर प्रकृतियोंके आश्रयसे चौसठ पदवाले उत्कृष्ट और जघन्य अल्पबहुत्वका भी विचार किया गया है। यहाँ दो बातें उल्लेखनीय हैं। प्रथम तो यह कि इन दोनों प्रकारके चौंसठ पदवाले अल्पबहुत्वका निर्देश पहले क्रमसे सूत्र गाथाओंमें किया गया है और फिर उन्हींको गद्यसूत्रों में दिखलाया गया है। द्वितीय यह कि वीरसेन स्वामीने इन दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंसे सूचित होनेवाले स्वस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश अपनी धवला टीकामें अलगसे किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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