Book Title: Shatkhandagama Pustak 12 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati View full book textPage 9
________________ ( २ ) इसके आगे इसी वेदनाभाव विधानको क्रमसे प्रथम, द्वितीय और तृतीय ये तीन चूलिकाएँ चालू होती हैं। जिस प्रकरणमें विवक्षित अनुयोगद्वारमें कहे गये विषयका अवलम्बन लेकर विशेष व्याख्यान किया जाता है उसे चूलिका कहते हैं। इसलिए चलिका सर्वथा स्वतन्त्र प्रकरण न होकर विवक्षित अनुयोगद्वारका ही एक अङ्ग माना जाता है । ऐसी यहाँ क्रमसे तीन चूलिकाएं निर्दिष्ट हैं। प्रथम चलिकामें गुणश्रेणिनिर्जरा किसके कितनी गुणी होती है और उसमें लगानेवाले कालका क्या प्रमाण है, इसका विचार किया गया है। यहाँ गुणश्रेणिनिर्जराके कुल स्थान ग्यारह बतलाये हैं। यथा-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह, स्वस्थान जिन और योगनिरोधमें प्रवृत्त हुए जिन । इन ग्यारह स्थानों में णश्रेणि निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी होती है। किन्तु इसमें लगनेवाला काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हीन जानना चाहिए । अर्थात् प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय गुणश्रेणि निर्जरामें जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उससे श्रावक के होनेवाली गुणश्रेणि निर्जरामें संख्यातगुणा हीन अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इस प्रकार आगेआगे हीन-हीन काल जानना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दृष्टिश्रावक' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धिमें ये गुणश्रेणिके स्थान कुल दस गिनाये हैं । वहाँ जिनके दो भेदोंका आश्रय कर प्रतिपादन नहीं करना इसका कारण है । यहाँ पहले दो सूत्र गाथाओंमें इन ग्यारह गुणश्रेणि निर्जरा और उनके कालका विचार कर अनन्तर गद्यसूत्रों द्वारा इनका स्वतन्त्र विचार किया गया है। द्वितीय चूलिका आगे अनुभागबन्धाध्यवसान थान'का कथन करने के लिए प्रारम्भ होती है। इस प्रकरणके ये बाहर अनुयोगद्वार हैं-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, आजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पवहुत्वप्ररूपणा । (१) अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा-कर्मों के जितने भेद-प्रभेद उपलब्ध होते हैं उनमें हीनाधिक अनुभाग शक्ति पाई जाती है । यह शक्ति कहाँ कितनी होती है इसका विचार अनुभागशक्तिमें उपलब्ध होनेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंके आधारसे किया जाता है। अविभागप्रतिच्छेद उन शक्त्यंशोंकी संज्ञा है जो विभागके अयोग्य होते हैं। शक्ति का यह विभाग बुद्धिद्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ, एक ऐसी शक्ति लो जो सर्वाधिक हीन दर्जे की है। पुनः इससे दूसरे दर्जेकी शक्ति लो और देखो कि इन दोनों शक्तियोंमें कितना अन्तर है और उस अन्तरका कारण क्या है। अनुभवसे प्रतीत होगा कि पहली शक्तिसे दूसरी शक्तिमें जो एक शक्यंशकी वृद्धि दिखाई देती है उसीका नाम अविभागप्रतिच्छेद है। अनुभागसम्बन्धी ऐसे अविभागप्रतिच्छेद एक अनभागस्थानमें अनन्तानन्त उपलब्ध होते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जितने कर्मपरमाणुओंमें ये अविभागप्रतिच्छेद समान उपलब्ध होते हैं उनमें से प्रत्येक कर्मपरमाणुके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्ग संज्ञा है और वे सब कर्मपरमाणु मिलकर वर्गणा कहलाते हैं। यह प्रथम वर्गणा है । पुनः इनसे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदको लिए हुए जितने कर्मपरमाणु होते हैं उनकी दूसरी वर्गणा बनती है। इस प्रकार निरन्तर क्रमसे एक एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धिके साथ तीसरी आदि वर्गणाए जहाँ तक उत्पन्न होती है उन सबकी स्पर्धक संज्ञा है। एक स्पर्धकमें ये वर्गणाएँ अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग उपलब्ध होती हैं। यह प्रथम स्पर्धक है। इसके आगे सब जीवोंसे अनन्तगुण अविभागप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर द्वितीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है और जहाँ जाकर द्वितीय स्पर्धककी समाप्ति होती है उससे आगे भी उत्तरोत्तर इसी प्रकार अन्तर देकर तृतीयादि स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं जो प्रत्येक अभव्योंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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