Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 14
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
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________________ // 8 // // 9 // // 10 // // 11 // // 12 // // 13 // जं वा तं वा विसमं समं व संपावियस्स य अवत्थं / परमसुहं चिय निच्चं समाहिमंतस्स पुण नियमा सुक्खं व समाहिकयं अभयं अकिलेस अलज्जणिअं। परिणामसुंदरं सिवसमक्खयं निरुवममपावं मज्जत्तमित्तएण वि सुसमाहिठियस्स धीरपुरिसस्स। जं सो न रमइ कस्स वि न या वि से रमइ को वि परो जे सुसमा हिम्मि रया विरया नीसेसपावठाणाओ। सुहिसयणधणा इविणासदंसणे वि हु न तेर्सि मणो अचलव्व चलइ थेवं पि न संजमाओ ममत्तचत्ताणं / सुसमाहिनिही भयवं रायरिसिनमीह दिटुंतो एसो अ समाही चित्तविजयजणिउ वि न हु थिरो होइ। जइ नियमणं चरंतं वारं वारं न सासेइ . पोअवहणं व चित्तं चिंतासागरगयं परिभमंतं। . अन्नाणपवणपेल्लियविसुत्तियावीइहम्मंतं पडियं मोहावत्ते कह लगिज्जा समाहिवरमग्गे। जइ जोइज्ज न सम्मं अणुसासणकन्नधारो से ? दोसाण नासणं गुणपयासणं मोणसासणं इत्तो / चित्तस्स वुच्चइ तयं एवं सुसमाहिओ कुज्जा हंभो चित्त ! विचित्तं निच्चं च तुमं पि वहसि बहुभावे / किंतु परे तंतेहिं मोहेइ तुमं तु णप्पाणं सइ रूईयगीयनच्चियहसियाइवियारओ जणं दटुं / मत्तं व हिअय तह तं कहेसु जह नासि हसणीयं मोहभुयंगमदटुं सुविसंतुलचिट्ठियं जयमसंतं / किं न पुरत्थं पिच्छसि ? विवेयमंतं न जं सरसि // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // 299
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