Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 14
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
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________________ विभवे च मत्तकरिवर-कर्णचले चञ्चले शरीरेऽपि / पापमशर्मकरं ते, क्षणमपि नो युज्यते कर्तुम् // 36 // जननी जनको भ्राता, पुत्रो मित्रं कलत्रमितरो वा / दूरीभवन्ति निधने, जीवस्य शुभाशुभं शरणम् // 37 // यत्परलोकविरुद्धं, यल्लज्जाकमिहैव जनमध्ये / अन्त्यावस्थायामपि, तदकरणीयं न करणीयम् .. // 38 // संप्राप्ते नरजन्मनि, सुदुर्लभे निजहितं परित्यज्य / किं कल्मषाणि कुरुषे दृढानि निजंबन्धनानीह // 39 // भवकोटीष्वपि दुर्लभ-मिदमुपलभ्येह मानुषं जन्म / येन न कृतमात्महितं, निरर्थकं हारितं तेन // 40 // मा चिन्तय परिहारान्, परविभवं माभिवाञ्छ मनसापि / मा ब्रूहि परुषवचनं परस्य पीडाकरं कटुकम् // 41 // पैशून्यं मात्सर्यं, निघृणतां कुटिलतामसन्तोषम् / कपटं साहंकारं, ममत्वभावं च विजहीहि .. // 42 // ये विदधन्त्युपतापं, परस्य लुब्धा धने कृतान्यायाः / जीवितयौवनविभवा-स्तेषामपि शाश्वता नैव . // 43 // इष्टं सर्वस्य सुखं, दुःखमनिष्टं विभाव्य मनसीदम् / मा चिन्तय परपापं, क्व चिदप्यात्मनि यथा तद्वत् // 44 // कायेन मानसेन च, वचनेन च तद्वदेव कर्त्तव्यम् / येन भवे वैराग्यं प्रशान्तता तापशमनं च // 45 // व्याधिर्धनस्य हानिः, प्रियविरहा दुर्भगत्वमुद्वेगः / . सर्वत्राशाभङ्गः, स्फुटं भवत्यकृतपुण्यस्य // 46 // न गृहे न बहिर्न जने, न कानने नान्तिके न वा दूरे। न दिने च क्षणदायां, पापानां भवति रतिभावः // 47 // 305
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