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अढार पापस्थानकनी सद्याय, (१५) मा० ॥ ६ ॥ जे जूगे ये नुपदेश, जन रंजननें धरे वेश, तेहनो जूगे सकल कलेश हो लाल ॥ मा० ॥ ७॥ तेणें त्रीजो मारग नांख्यो, वेशनिंदे दंने राख्यो, शुरू नाष शम सुख चाख्यो हो लाल ॥ मा॥॥ जू वोली नदर जे नरवू, कपटीने वेशे फरवू, ते जमवारे शें करवु हो लाल ॥ मा॥ ए॥ में जाणे तो पण देने, माया मोसने अधिक अचंनें, समकि तदृष्टि मन अंन्ने हो लाल.॥मा ॥ १०॥ श्रुत मर्यादा निरधारी, रह्या माया मोस निवारी, शुइ नाषकनी बलिहारी हो लाल ॥ मा ॥ ११ ॥ जे मायायें जूठ न बोले, जग नहीं कोइ तेहनें तोलें, ते राजे सुजस अमो लें हो लाल ॥१॥इति सत्तरमा पापस्थानकनी सद्याय संपूर्ण॥
॥ अथ अढारमा मिथ्यात्व पापस्थानकनी सद्याय प्रारंनः॥ . ॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आरा ॥ए देशी॥अढारमुंजे पापर्नु था नक, ते मिथ्यात्व परिहरिये जी॥ सत्तरथी पण ते एक नारी, होये तुला ये जो धरिये जी॥ कष्ट करो परें परें दमो अप्पा,धर्मअर्थ धन खरचो जी ॥ पण मिथ्यात्व बते ते ज, तिणे तेहथी तुमे विरचो जी॥१॥ किरिया करतो त्यजतो परिजन, दुःख सहतो मन रीजें जी॥अंधन जीपे परनी सेना, निम मिथ्यादृष्टि न सीजे जी॥ वीरसेन शरसेन दृष्ठांतें, समकित नी निर्युक्तं जी॥जोड्ने ललीपरें मन नावो, एह अरथ वर युक्त जी॥शा धम्मे अधम्म अधम्मे धम्मह, सन्ना मग्ग नमग्गा जी॥ नन्मार्गे मारगनी सन्ना, साधु असाधु संलग्गा जी ॥ असाधुमां साधुनी मति, जीवें अजीव अजिय जिय वेदो जी ॥ मुनें अमुत्ति असुनें मुत्तिह, सन्ना ए दानेदो जी ॥३॥अनियहिक निज निज मते अन्निग्रह, अननियहिक सहु सरिखा जी॥ अन्तिनिवेशि जाणतो कहे जनु, करे न तत्त्व परिरका जी। संशय ते जिन वचननी शंका, अव्यक्ते अनाजोगा जी ॥ ए परा पांचनेद ने विश्रुत, जाणे समजु लोगा जी ॥४॥ लोक लोकोत्तर नेद ए षट्विध, देव धर्म वली गुरु पर्व जी।। शक्तै तिहां लोकिक त्रण आदर, करतां प्रथम निगर्व जी ॥ लोकोत्तर देव माने नीयाणे, गुरु जे लक्षणहीना जी॥ पर्वनिष्ट श्ह लोकनें काजें, माने गुरुपद लीना जी॥५॥ एम एकवीश मिथ्यात्व त्यजे जे, नजे चरण गुरुकेरां जी॥ सजे न पा रजें न राखे, मत्सर शेह अनेरा जी ॥ समकितधारी श्रुत आचारी, तेहनी जग बलिहारी जी।
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