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सत्यामृत
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प्रानन्द की: इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से सचि- का तृप्त करने के असख्य साधन उसने जुटाये है दानन्द से जगत का मल और उसके विकास की जिससे प्राणी ने आनन्द पाया है, नरसय अवस्था आजाती हैं। इसप्रकार वैज्ञानिक नारी में उसने एसा आकर्षण पैदा किया है लोग सायमन के साधक हैं। जिससे दोनों को श्रानन्द होता है। यह सब
धार्मिक दृष्टि से विचार करना सहल, प्राकृतिक या अयलसाध्य (नाममात्र का कहते हैं कि सन में से चित की सृष्टि हो या न
यलसाध्य ) आनन्द है। पर मनुष्य को प्रकृति हो, पर उसमें सन्दह नहीं कि सत् का सार
के द्वारा दीगई सामग्री को कई गुणा बढ़ाना है
और सुख के साथ दुःख का जो श्रोत प्रकृति ने [ उत्तम अंश] चिन् है और चित्का सार श्रानन्द है। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से विचार करनेवाले
बहाया है उसे क्षीण करना है। सत्येश्वर की इस लोग भी सन्धिानन्द के साधक है।
विशेष साधना की जिम्मेदारी मनुष्य पर है।। उस सच्चिदानन्द को मैं भगवान सत्य या
जितने धर्म हैं वे सत्येश्वर की इसी साधना सत्येश्वर कहता हूँ। इसप्रकार में ईश्वरवानी भी . हूँ और अनीश्वरवादी भी हूँ। मेरी मावना मे
काल और अनन्त पणियों की दृष्टि से सत्येश्वर
की साधना के कार्यक्रम भी अनन्त हैं। प्रत्येक ईश्वरवाट है और बुद्धि में अनीश्वरवाद । मेरे
कार्यक्रम अमुक देशकाल और अमुक पात्रों के जीवन में भागना और बुद्धि का समान स्थान है लिये पूर्ण होसकता है पर वह सत्येश्वर के आगे इसलिये मैं ईश्वग्वाद अनीश्वरवाद दोनो मा।
अनन्तका हिस्सा ही है। हां। हमारा देशकाल समान रूप में उपयोग करता हूँ। जो भावना
और हमारा या हमारे समाज का जीवन भी प्रधान हों व ईश्वरवादी बनकर भगवान सत्य
सत्येश्वर के सामने अनन्ताश ही है इसलिये की अर्थात् सच्चिदानन्द की साधना और धारा
अनन्ताश जगत् के लिये अन्साश साधना पूर्ण धना करे, जो बुद्धिप्रधान हो वे अनीश्वरवादी
साधना वनजाती है या धनसकती है। बनकर सत्य की अर्थात् सनिचदानन्द की साधना और श्राधिना करें।
सत्येश्वर का दर्शन (सत्येशापे दीरो) सत्येश्वर की साधना ( सन्येशाप साघो)
पा सत्येश्वर की साधना के पहिले सत्येश्वर
1 का दर्शन करना जरूरी है। क्योंकि देखने के सत्य की साधना है चिन्मय जगत को बिना चलना व्यर्थ है। सत्येश्वर के दर्शन से इस श्रानन्दमय बनाना । सर को चिन् बनाने का या बात का पता लगजाता है कि कर्तव्य का निर्णय सत में से चित्र निकालनका मनुष्य को यत्न नहीं कैसे किया जाय १ जगत कल्याण में वृद्धि कैसे करता है, वह सब प्राकृतिक प्रणाली के अनुसार की जाय १ भ्रमा और कुसंस्कारों पर विजय कैसे होरहा है, पर चित् को श्रानन्द रूप बनाने के प्राप्त की जाय ? किस गुण को या धर्म के किस लिवे मनुष्य को काफी प्रयत्न करता है। प्राकृ- अग को कितना महत्व दिया जाय १ परस्पर तिक प्रणाली से चित में से सुख और दुख दोनो विरोध होने पर किसको गौण या मुख्य बनाया निकल रहे हैं और अमुक अंश में निकलते रहेगे, आय विरोधों का समन्वय कैसे किया जाय ! प्राणी का, ग्वासकर मनुष्य का काम है कि दुःख इत्यादि। कम करे और सुख बढावे । दु.ख की अपेक्षा सुच
सत्येश्वर का दर्शन दो तरह का होता है का परिमाए अधिक से अधिक करते जाना ही
। एक रूपदर्शन, ( या श्राकारदर्शन ) दूसरा गुणसच्चिदानन्द की, भगवान सत्य की साधना है। ।
धना है। दर्शन । रूपदर्शन में रूपक अलंकार के द्वारा सत्येयो तो सत्येश्वर की थोड़ी बहुत साधना हर श्वर को और उनके सारे कुटुम्ब को अर्थत एक कररहा है, प्रकृति भी कर रही है । इन्द्रियों जीवन के सारे गुणों को व्यक्तित्व देकर समझा