Book Title: Sarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Author(s): Kalapurnsuri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 7
________________ साम-यह “सामायिक" मधुर परिणाम रूप है। इस सामायिक में समस्त जीव राशि के प्रति आत्मतुल्य वृत्तिरूप स्नेह, परिणाम एवं मैत्रीभाव होता है। इसे सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व सामायिक भी कहते हैं । जीव की शत्रु-मित्र अवस्था में समता रखने से "मधुर परिणाम" उत्पन्न होता है। सम-यह सामायिक "तुल्य परिणाम" रूप है। हर्ष-शोक के संयोग में, सुख-दुःख अथवा मान-अपमान के प्रसंग में तुला की तरह-दोनों ओर तुल्य वृत्ति, मध्यस्थभाव इस सामायिक में होता है। पर्याय की गौणता एवं द्रव्य की मुख्यता के द्वारा यह सिद्ध होती है। "तज्ञान" के अभ्यास के द्वारा ही तुल्य परिणाम उत्पन्न हो सकता है, जिससे उसे "श्रु त सामायिक" अथवा "सम्यग्-ज्ञान" भी कहते हैं । कर्म से जीव की भिन्नता का विचार अथवा कर्मदृष्टि से शुभाशुभ कर्म की समानता का विचार करने से "तुल्य परिणाम" प्रकट होता है । सम्म-यह सामायिक "क्षीर शक्कर युक्त परिणाम" रूप है । यहाँ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता, एकरूपता स्वरूप परिणाम होता है; जिससे इसे चारित्र सामायिक भी कहते हैं। मोक्ष का उपायरूप ज्ञान, क्रिया अथवा रत्नत्रयी में समान भाव ही क्षीर-शक्करयुक्त परिणाम है । विशेष में से सामान्य में जाने से समता भावरूप सामायिक उत्पन्न होती है। विशेष अनेक रूप में होने से उसमें इष्ट-अनिष्ट की कल्पना अर्थात् विकल्पजाल उत्पन्न होता है। सामान्य एकरूप होने से उसमें विकल्प नहीं होते । "साम" एवं “सम" सामायिक जीवत्व सामान्य एवं द्रव्यत्व सामान्य के विचार से उत्पन्न होता है। व्यक्ति के रूप में जीव भिन्न भिन्न होते हुए भी “जीवत्व" जाति सबकी एक ही है। कहा भी है, “सव्वभूयप्पभूयस्स"--सर्वात्मभूत बना हुआ मुनि सम्यग् प्रकार से जीवों के स्वरूप को देखता हुआ और समस्त आस्रवों को रोकता हुआ पापकर्म नहीं बाँधता । "श्री महानिशीथ सूत्र" में भी “साम" सामायिक का स्वरूप बताते हुए कहा है कि-"गोयमा ! पढमं नाणं तओ दया ।" - "पहले ज्ञान प्राप्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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