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शब्दार्थ - (जो) जो साधु (कामे) काम भोगों का (न) नहीं (निवारए) त्याग करता है, वह (पए पए) स्थान-स्थान पर (विसीयंतो) दुःखी होता हुआ (संकप्पस्स) खोटे मानसिक विचारों के (वसंगओ) वश होता हुआ (सामण्णं) चारित्र को (कह) किस प्रकार (कुज्जा) पालन करेगा? (नु) किसी प्रकार पालन नहीं कर सकता।
- जो साधु विषयभोगों का त्याग नहीं करता, वह जगह-जगह दुःख देखता हुआ, और खोटे परिणामों के वश होता हुआ साधुवेश का किसी तरह पालन नहीं कर सकता। "साधु कब कहा जाता है?" . वत्थगंधमलंकारं, इन्थीओ सयणाणि य।
अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ।।२।। सं.छा. वस्त्रगन्धालङ्कारान् स्त्रियः शयनानि च। .
अच्छन्दान् ये न भुञ्जते, नासौ त्यागीत्युच्यते ।।२।। शब्दार्थ - (जे) जो पुरुष (अच्छंदा) अपने आधीन नहीं ऐसे (वत्थगंध) वस्त्र, गंध (अलंकार) अलंकार (इत्थीओ) स्त्रियाँ (य) और (सयणाणि) शयन, आसन आदि को (न) नहीं (भुंजति) सेवन करते (से) वे पुरुष (चाइ त्ति) त्यागी (न) नहीं (वुच्चइ) कहे जाते। . - जो चीनांशुक आदि वस्त्र, चन्दन कल्क आदि गन्ध, मुकुट कुंडल आदि अलंकार, स्त्रियाँ, पल्यंक आदि शयन और आसन न मिलने पर उनका परिभोग नहीं करते वे त्यागी नहीं कहे जाते।।
जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठि कुव्वइ।
साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ||३|| सं.छा.ः यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धान् विपृष्ठतः करोति। • स्वाधीनान् त्यजति भोगान्, स एव त्यागीत्युच्यते ।।३।।
शब्दार्थ - (जे य) जो पुरुष (कंते) मनोहर (पिए) प्रिय, इष्ट (लद्धे) मिले हुए (साहीणे) स्वाधीन (भोए) विषय-भोगों से (विपिढिकुव्वइ) मुख फेर लेता है (य) और (चयइ) छोड़ देता है (से) वह (हु) निश्चय से (चाइ त्ति) त्यागी (वुच्चइ) कहा जाता है।
-विषय-भोगों को जो पुरुष छोड़ देता है, वही असली त्यागी कहा जाता है। यहाँ टीकाकार पूज्यपाद श्रीहरिभद्रसरिजी महाराज फरमाते हैं कि -
'अत्थपरिहीणो विसंजमे ठिओ तिणि लोगसाराणि अग्गी उदगं महिलाओ य परिच्चयंतो चाइ ति।'
धन, वस्त्र आदि सामग्री से रहित (चारित्रवान्) पुरुष यदि लोक में सारभूत अग्नि, जल और स्त्री इन तीनों को सर्वथा छोड़ दे तो वह त्यागी कहा जाता है। क्योंकि
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 7