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वर्षतक आत्मिक ज्ञान प्राप्त करनेका प्रयत्न किया; लेकिन उसका प्रयास निष्फल हुआ । अन्तमें उसने सूफ़ियोंका आश्रय लिया और मनोवांछित फल पाया । सूफ़ियोंसे उसने मनकी शुद्धि और ईश्वराराधनके मार्ग सीखे ।
जिस समय ग़ज़्ज़ाली मरने लगा तो उसने अपना कफ़न मंगवाया, उसको दोनों हाथोंमें लेकर चूमा, अपनी आँखोंसे लगाया और अन्तमें अपने पैर फैलाकर लेट रहा।
ग़ज़्ज़ाली लिखता है कि 'सूफ़ियोंके जीवनसे अधिक सुन्दर, उनके सद्व्यवहारसे अधिक श्लाघनीय और उनके सदाचारसे अधिक पवित्र कोई वस्तु नहीं है। उनका उद्देश्य विषयोंके कठोर बन्धनसे मनको मुक्त करना और बुरी वासनाओं और संकल्प-विकल्पोंसे मनको बचाना है, ताकि शुद्ध हृदयमें केवल परमात्माके वास और उसके आराधनके लिए स्थान हो सके।'
सूफ़ियोंकी ज़िन्दगी सत् चित् और आनन्दकी खोजमें बीतती है। वह इस सिद्धान्तमें अटल विश्वास रखते हैं कि-'यहाँ भी तू वहाँ भी तू, ज़मीं तेरी फ़लक तेरा।' मीरांके समान सूफ़ी तपस्विनी रबिया कहती है कि, 'ईश्वरके प्रति भक्ति मुझे शैतानके प्रति घृणा करनेका अवकाश नहीं देती।'
दावत एक बार सुकरातने कुछ धनी लोगोंको भोजनपर बुलाया। उनकी पत्नीने कहा--'मुझे तो ऐसा मामूली खाना खिलाने में लज्जा आयेगी।'
सुकरात बोले-'इसमें लज्जाकी कोई बात नहीं। महमान अगर समझदार होंगे तो उन्हें खाना अरुचिकर नहीं लगेगा; अगर अरुचिकर लगा भी तो वह सहन कर लेंगे। और अगर वह बेवकूफ़ होंगे तो हमें मिन्दा होनेकी ज़रूरत नहीं।'
सन्त-विनोद
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