Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 108
________________ मालूम हुआ कि जिनसे वह सामान उठवाकर लाया है वे बंगालके प्रतिष्ठित विद्वान् श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हैं, तो वह उनके पैरोंपर गिर पड़ा । विद्यासागर बोले— 'मेरे देशवासी फ़िज़ूलका अभिमान छोड़कर समझें कि अपना काम अपने हाथों करना गौरवकी बात है और स्वावलम्बी बनें, यही मेरी मज़दूरी है ।' स्वामी दयानन्द स्वामीजी शुरू में सिर्फ एक लंगोटी रखते थे । एक दिन किसीने आकर कहा - 'महाराज ! आपके पास एक ही लंगोटी है । मैं एक और लँगोटी लाया हूँ ।' दयानन्द बोले – 'अरे, मुझे तो यह अकेली लँगोटी बोझ हो रही है, तू एक और ले आया ! जा, ले जा; भाई, इसे ले जा ! - * कायमगंजमें किसीने कहा - 'आपके पास पात्र नहीं है । कमण्डलु तो होना चाहिए ।' हँसकर बोले- 'हमारे हाथ भी तो पात्र हैं ।' * फर्रुखाबादमें एक स्त्री अपने मरे हुए बालककी लाश लेकर पाससे गुज़री । लाश मैले-कुचैले कपड़ोंसे लपेटी हुई थी । स्वामीजीने कहा'माई, इसपर सफ़ेद कपड़ा क्यों नहीं लपेटा ?' 1 'मेरे पास सफ़ेद कपड़ा या उसके लिए पैसे कहाँ, महाराज !' हुई बोली | वह रोती स्वामीजीकी आँखों में आँसू उमड़ आये । बोले - ' हा ! राजराजेश्वर भारतकी यह दुर्दशा कि आज उसके बच्चों के लिए कफ़न तक नहीं !' * अनूपशहरमें किसीने स्वामीजीको विप दे दिया । उनके मुसलमान भक्त सैय्यद मुहम्मद तहसीलदारको पता चला तो जहर देनेवालेको पकड़ मँगाया । दयानन्दके दरबार में अपराधी पेश किया गया । महाराजने कहा - ' इसे छोड़ दो। मैं दुनिया में लोगोंको क़ैद कराने नहीं, छुड़ाने आया हूँ ।' ६८ सन्त-विनोद

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