Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 107
________________ दयामयी श्रीरामकृष्ण परमहंसके गलेमें नासूर हो गया था। एक भक्तने मशवरा दिया-'अगर आप मनको एकाग्र करके कहें, 'रोग चला जा ! रोग चला जा!' तो निश्चय ही रोग चला जायेगा।' । परमहंस बोले-'जो मन सच्चिदानन्दमयी माँका स्मरण करनेके लिए मिला है। उसे मैं हाड़-मांसके पिंजड़ेमें लगाऊँ ?' फिर भी शिष्योंने आग्रह किया—'आप मांसे प्रार्थना करें कि वह आपका रोग मिटा दे।' श्रीरामकृष्ण बोले-'माँ सर्वज्ञ हैं, समर्थ हैं और दयामयी हैं। उन्हें जो मेरे कल्याणके लिए उचित लगता है, सो कर ही रही हैं । उनकी व्यवस्थामें हाथ डालनेका छिछोरापन मुझसे नहीं होगा।' स्वावलम्बन बंगालके एक छोटे स्टेशनपर गाड़ी खड़ी हुई। एक उजले-पोश युवकने 'कुली ! कुली !' पुकारना शुरू किया, हालाँकि सामान उसके पास कुछ ज्यादा नहीं था। कुली तो नहीं मिला, मगर एक अधेड़ आदमी मामली देहातियोंके-से कपड़े पहने उसके पास आ गया। युवकने उसे कुली समझ लिया। बोला-'तुम लोग बड़े सुस्त होते हो । ले चलो इसे जल्दी ।' ___ उस आदमीने सामान उठा लिया और युवकके पीछे-पीछे चल दिया। घर पहुँचकर वह सामान रखवा कर मज़दूरी देने लगा। वह आदमी बोला-'धन्यवाद ! इसकी ज़रूरत नहीं है।' 'क्यों ?' युवकने ताज्जुबसे पूछा। उसी वक्त युवकके बड़े भाई घरमैसे निकले और उन्होंने उस आदमीको प्रणाम किया। जब युवकको सन्त-विनोद

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