Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 129
________________ 'हम चोर हैं।' 'हम भी चोर हैं।' 'तो तुम भी हमारे साथ चोरी करने चलो।' 'चलो।' तीनों चले । एक घरमें घुस गये । चोरोंने सामान बांधते हुए कहा'तुम भी बाँधो।' 'तुम ही बाँधो', महात्मा बोले। इधर सामान बँधा, उधर महाराजकी नज़र एक ढोलक पर पड़ गई। फिर क्या था ! मौज आ गई-उठाकर लगे जोरोंसे बजाने ! जाग पड़ गई । 'चोर-चोर'का हल्ला मचने लगा। चोर तो भाग गये, मगर बाबाकी ढोलक दमादम बजती रही। लोगोंने बिना देखे-भाले उन्हें पीटना शुरू कर दिया । बड़ी मार पड़ी। यहाँ तक कि लोहू-लुहान हो गये। मगर उन्होंने किसीको पीटनेसे रोका नहीं और लगातार ढोलक पीटते रहे । आखिर बेहोश होकर जा पड़े। तब कहीं लोगोंने पहचाना-'अरे ये तो ग्वारिया बाबा हैं !' 'महाराज' आप यहाँ कैसे आ गये ?' 'आया कैसे ! श्यामसुन्दरने कहा-चलो चोरी करने । मैंने कहा चलो । उनके साथ चला आया । यहाँ ढोलक देखकर मेरी इच्छा बजानेकी हो गई ।' यह कहकर वो हँस पड़े। भजनका वजन ! किसी गाँवमें एक बूढ़ा और उसकी बुढ़िया रहती थी। दोनों बिलकुल अपढ़ और बड़े सीधे स्वभावके थे। उन्हें गिनती तो बीस तक आती थी, पर कच्ची-कच्ची। जब वे भजन करने बैठते तब एक-एक सेर गेहूँ या चना तौलकर अपने-अपने सामने रख लेते । 'राम' कहते जाते और एक सन्त-विनोद

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