Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 144
________________ युवक बोला - 'महाराज ! जिन्दगीका क्या ठिकाना ! शायद कुछ हो गया तो मेरी पत्नीको कष्ट न हो इसलिए बीमा करवाया है ।' इसपर साधुने कहा- 'तब तू रोज़ भगवान्‌का नाम स्मरण करता रह ।' युवक बोला - 'उसके लिए अभी बहुत वक़्त है । बुढ़ापेमें देखूँगा ।' यह सुनकर साधुको हँसी तो आई मगर चुप रहा । भगवान् के भगवान् ! एक बार नारद ऋषि द्वारका आये । उन्हें रोक तो थी ही नहीं, अन्दर तक चले गये । पर कहीं भगवान् कृष्ण न दिखे । आखिर उन्होंने रुक्मिणीसे पूछा - ' यजमान कहाँ हैं ?' 'पूजा में बैठे हुए हैं ।' यह सुनकर नारद हैरत में पड़ गये । सोचने लगे कि त्रिभुवनके ऋषि, मुनि, संत, सिद्ध, योगी, त्यागी, भोगी सब जिसको भगवान् मानकर पूजते हैं वह किसकी पूजा करता है ! नारद देवघर में दाखिल हुए । देखते हैं कि भगवान् भक्तोंकी मूर्तियोंके सामने ध्यानावस्थित बैठे हुए हैं ! सुखी कौन ? एक गाँव में एक ब्रह्मचारी रहता था । हनुमान् के मंदिरमें रहता, लंगोटी लगाता, भिक्षा माँगता और उपासना, भजन, नामस्मरण करता हुआ आनन्द दिन गुज़ारता था । एक दिन एक बड़ा रईस उस मंदिर में आया । उसके नौकर-चाकर और ठाठ-बाट देखकर ब्रह्मचारीको लगा कि यह बड़ा सुखी आदमी होना चाहिए | उसने उससे पूछा । रईस बोला - 'मैं सुखी कहाँ ! मेरे कोई बालबच्चा नहीं है । अमुक गाँवमें जो धनवान् रहता है उसके चार लड़के हैं | वह है सच्चा सुखी ।' १३४ सन्त-विनोद

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