Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 131
________________ सब उल्लू उस हंसको मारने झपटे। ग़नीमत यह थी कि उस वक़्त दिन था, इसलिए हंस सही सलामत बचकर उड़ गया । हंसने मनमें सोचा -- ' बहुमत सत्यको असत्य तो कर नहीं सकता । लेकिन जहाँ उल्लुओं का बहुमत हो वहाँ किसी समझदारके लिए सत्यको उनके गले उतार सकना बड़ा मुश्किल है ।' आज़ादी एक रोज़ किसी दुबले-पतले भेड़ियेकी एक मोटे-ताज़े कुत्ते से मुलाक़ात हो गयी । भेड़ियेने कुत्ते से उसकी तुन्दी और ताज़गीका रहस्य पूछा । कुत्ता बोला- 'मेरा मालिक मुझे अच्छे-अच्छे पौष्टिक खाने खिलता है । तुम भी मेरे साथ रहो तो तुम भी ऐसे हो जाओ ।' भेड़िया - 'तुम्हें अपने मालिकका क्या काम करना पड़ता है ?" कुत्ता - 'सिर्फ़ घरकी रखवाली करना ।' भेड़ियेने इस कार्य के लिए अपनेको समर्थ माना और कुत्तेके यहाँ चलनेको रजामन्द हो गया । दोनों शहरकी तरफ़ आ रहे थे कि भेड़ियेकी नज़र कुत्तेकी गरदनपर पड़ी । उसने पूछा - 'तुम्हारी गरदनपर यह निशान कैसा है ?" कुत्ता - 'यह तो पट्ट े का निशान है । दिनमें मेरा मालिक मुझे बाँध देता है ताकि लोगों को तंग न करूँ । रातको घरकी रखवालीके लिए छोड़ देता है । तुम रहोगे तो तुम्हें भी ऐसा पट्टा पहनना पड़ेगा ।' भेड़िया उलटे पैरों फिरने लगा - 'मुझे जंगलमें आज़ाद रहकर रूखासूखा खाना मंजूर है; पर तुम्हारे मालिकका बँधुआ होकर मोटा-ताज़ा बनना मंज़ूर नहीं ।' सन्त-विनोद 'मिले खुश्क रोटी जो आज़ाद रहकर ! गुलामी हलवेसे हरचन्द बढ़कर !! ' १२१

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