Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 110
________________ रामचरितमानस कुछ मित्रोंने गाँधीजीको लिखा कि, 'रामचरित-मानसमें स्त्रीजातिकी निन्दा है, बालि-वध, विभीषणके देश-द्रोह, जाति-द्रोहकी प्रशंसा है । काव्य-चातुर्य भी उसमें कुछ नहीं, फिर आप उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ क्यों मानते हैं ? इसके जवाबमें उन्होंने लिखा- 'आप सरीखे कुछ समीक्षक और मिल जायँ तो रामायणको 'दोपोंका पिटारा' ही बना दें ! इसपर मुझे एक बात याद आती है। एक चित्रकारने अपने आलोचकोंको जवाब देनेके लिए एक बड़े सुन्दर चित्रको प्रदर्शिनीमें रक्खा और उसके नीचे लिख दिया-'इस चित्रमें जिसको जहाँ कहीं भूल या दोष दिखाई दे, वहाँ अपनी क़लमसे निशान लगा दे।' नतीजा यह हुआ कि चित्र निशानोंसे भर गया। लेकिन वह तसवीर दर-असल बड़ी ही कलापूर्ण थी। ठीक वैसी ही हालत आपने रामायणकी की है। यूँ तो वेद, कुरान और बाइबिलके भी आलोचकोंका अभाव नहीं है । पर जो गुणदर्शी हैं वे उनमें दोष नहीं देखते । मैं रामचरित-मानसको सर्वोत्तम इसलिए नहीं कहता कि कोई उसमें एक भी दोष नहीं निकाल सकता, बल्कि इसलिए कि उससे करोड़ों लोगोंको शान्ति मिलती है। 'मानस' का हर पृष्ट भक्तिसे भरपूर है । वह अनुभवजन्य ज्ञानका भण्डार है।' मैं खून नहीं पी सकता ! महात्मा गाँधीजीने कहा-'मैने गुरु नहीं बनाया; लेकिन मुझे कोई गुरु मिले हैं तो वे हैं रायचन्द भाई ।' ये रायचन्द भाई ( श्रीमद् राजचन्द्र ) बग्बई के एक जैन जौहरी थे। उन्होंने एक व्यापारीसे सौदा किया। यह तय हो गया कि अमुक तारीख १०० सन्त-विनोद

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