Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ 'तू क्या काम करेगा ?' 'जो आप करायें ।' 'तू क्या चाहता है ?' 'हुजूर ! गुलामकी अपनी चाह क्या !' बादशाह तख्तसे उठकर बोले- 'तुम मेरे उस्ताद हो । तुमने मुझे सिखा दिया कि प्रभु के सेवकको कैसा होना चाहिए ।' भक्त मुहम्मद सैयद एक बड़े सन्त थे । वे नितान्त निष्परिग्रही थे । दिगम्बर रहते थे । शाहजहाँ इन्हें बहुत मानता था । दाराशिकोह तो इनका भक्त ही था । वे अकसर एक गीत गाया करते थे, जिसका भाव है ---- 'मैं सच्चे सन्त भक्त फ़ुरकनका शिष्य हूँ। मैं यहूदी भी हूँ, हिन्दू भी, मुसलमान भी । मसजिद और मन्दिर में लोग एक ही परमात्माकी उपासना करते हैं । जो काबेमें संगे - असवद है वही देर में बुत है ।' औरंगजेब दाराका शत्रु था । वह सैयद साहब से भी चिढ़ता था । उसने उन्हें पकड़वा मँगाया । धर्मान्ध मुल्लाओंने उन्हें धर्म-द्रोही घोषित कर सूलीकी सजा सुना दी । पर सैयद साहबको इससे बड़ी खुशी हुई । वे सूलीकी बात सुनकर आनन्दसे उछल पड़े ! सूलीपर चढ़ते हुए बोले'आह ! आजका दिन मेरे लिए बड़े सौभाग्यका है । जो शरीर प्रियतम से मिलनेमें बाधक था वह इस सूलीकी बदौलत छूट जायेगा । मेरे दोस्त ! आज तू सूलीके रूपमें आया । तू किसी भी रूपमें क्यों न आवे मैं तुझे पहचानता हूँ ।' I आचरण एक आदमीने अपने लड़केको किसी महात्मा के सामने पेश करते हुए कहा--'महाराज, यह गुड़ बहुत खाता है । किसी तरह इसकी यह आदत छुड़ाइए । ' सन्त-विनोद ११५

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