Book Title: Sant Vinod
Author(s): Narayan Prasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 89
________________ भीष्म बोले-'इसमें क्षमा करनेकी कोई बात नहीं है। मुझे धर्मज्ञान तो उस वक़्त भी था, लेकिन दुर्योधनका अन्यायपूर्ण अन्न खानेसे मेरी बुद्धि मलिन हो गई थी। पर अब अर्जुनके बाणोंसे मेरे शरीरसे उस दूपित अन्नसे बना सारा रक्त निकल गया है। इसलिए अव बुद्धिके शुद्ध होनेपर धर्मका विवेचन कर रहा हूँ।' चमार राजा जनकके यहाँ विद्वानोंकी एक सभा हो रही थी। जब वहाँ अष्टावक्र आये तो उनके टेढ़े-मेढ़े शरीरको बेढंगी आकृतिको देखकर सभाके लगभग सब लोग हँसने लगे। अष्टावक्रकी विचक्षण बुद्धिसे उनके हँसनेका कारण छिपा न रहा । बुरा न मानकर वे खुद भी ज़ोरसे हँसने लगे। 'महाराज, आप हँस क्यों रहे हैं ?' 'तुम लोग क्यों हँस रहे हो ?' 'हम तो आपकी इस अटपटी आकृतिपर हँस रहे हैं।' 'और मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि बुलाया गया था विद्वानोंकी सभामें और आ पहुँचा हूँ चमारोंकी सभामें ।' : 'आप विद्वानोंको चमार कहते हैं !' 'जो हड्डी-चमड़ेको ही देखे वह चमार ही तो होता है,' अष्टावक्र बोले। कमी श्रीशुकदेवजी अपने पिता वेदव्यासजीको आज्ञासे आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए राजा जनकके यहाँ आये। उनकी मनोहर मिथिला नगरीमेंसे गुज़रते हुए उसकी किसी चीज़को देखकर वे आकृष्ट नहीं हुए। महलके सन्त-विनोद ७६

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