Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 14
________________ प्रस्तावना 11 सन्मति की समस्त कारिकाओं पर व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजने विस्तृत 'तत्त्वबोधविधायिनी' व्याख्या का निर्माण किया है। आप विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में जैन शासन को रोशन कर गये। 'तर्क पञ्चानन' यह आपका सार्थक बिरुद था। आप की व्याख्या आप की सर्वतोमुखी प्रतिभा की साक्षि है। प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र, स्याद्वादरत्नाकर आदि अनेक पश्चात्कालीन ग्रन्थों पर आप की व्याख्या का अमिट प्रभाव है। ___व्याख्या - तत्त्वबोधविधायिनी में सन्मति० के हार्द का अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है। ४९ वीं गाथा के विवरण में विस्तार से कणाद (वैशेषिक) दर्शन के द्रव्य-गुण आदि पदार्थों का निरूपण कर के, अनेकान्तवाद के अवलम्ब से उन का निराकरण किया गया है। ५० वीं गाथा के विवरण में सदसत्कार्यवाद उपरांत चित्र रूपवाद (पृ.७०८) का प्रासंगिकरूप से विवेचन किया है। ५२ वीं गाथा के विवरण में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म), पुरुषार्थं पाँचो की एकान्त-कारणता का खंडन और पाँचो की संकलित कारणता का समर्थन विस्तार से किया है। ५७ वीं गाथा की व्याख्या में 'विभज्यवाद' शब्द का एक बार ‘अनेकान्तवाद' ऐसा अर्थ दिया है तो दूसरी बार 'एकान्तवाद' ऐसा भी अर्थ किया है - वह मननीय है। ६३ वी गाथा के विवरण (पृ.७३२) में जैनदर्शन के जीवादि मोक्षपर्यन्त सात तत्त्वों का सप्रमाण विस्तृत विवेचन कुशलता से हुआ है। तथा, (पृ.७३४) आर्त्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्ल इन चार ध्यानों का भी सुचारु स्पष्टीकरण उपलब्ध है। गाथा ६५ में व्याख्या में (पृ.७४६) धर्मोपकरणविरोधी दिगम्बरमत का अच्छा निराकरण किया गया है। तथा, (पृ.७५१) स्त्रियों की मुक्ति के अधिकार को छिन लेने वाले दिगम्बर मत का भी सुंदर प्रत्याख्यान कर के स्त्रीमुक्ति की स्थापना की गयी है। तथा पृ.७५४ में श्रीजिनप्रतिमा की आँगी-रोशनी-विभूषा का समर्थन किया है। पंडितयुगल सुखलाल-बेचर अपने भूतपूर्व-सम्पादकीय निवेदन में लिखते हैं – “वस्तुतत्त्व विचारना ग्रन्थोमां आवी चर्चाओने अवकाश न होवो जोईए..' – किन्तु यह एक भ्रमणा है कि “प्रतिमा-विभूषा की चर्चा का वस्तुतत्त्वविचार में समावेश नहीं होता।' उन के सम्पादकीय निवेदन में ऐसे अभिप्राय की अभिव्यक्ति को अनुचित दिखाया जाय तो वह उचित होगा। व्याख्या की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि श्री अभयदेवसूरिजी आचार्यप्रद्युम्नसूरिजी के शिष्य थे। तृतीयकाण्ड-पंचमखंड मूल एवं व्याख्या के इस सम्पादन में पंडितयुगल सम्पादित चिरपूर्वमुद्रित गुजरातविद्यापीठ की ओर से प्रकाशित पूर्व संस्करण का मुख्यरूप से उपयोग किया गया है। पूर्वसंस्करण सम्पादन का प्रथम प्रयास था, इस लिये सुंदर कार्य होते हुए भी जो कुछ क्षतियाँ नजर में आयी उन का, पाटण-हेमचन्द्राचार्य ज्ञानभंडार के दो ताडपत्रीय आदर्श एवं लिम्बडी-जैनसंघ के ज्ञानभंडार के सन्मति० ग्रन्थ के आदर्श के आधार पर, संशोधन कर लेने का प्रयास किया गया है – एवं उस संशोधित पाठ के आधार पर ही हिन्दी विवेचन किया गया है। प्रथम एवं द्वितीय खंड की तरह इस पंचमखंड के नूतन सम्पादन एवं हिन्दी विवेचन में यथाक्षयोपशम शुद्ध प्रयास करने पर भी कोई त्रुटियाँ रह गयी होगी, अध्येता गण उन का शोधन करें यही विज्ञप्ति । ____पंडितयुगलने अपने संस्करण में तीसरे परिशिष्ट में (जो कि इस ग्रन्थ में भी यथासंभव उद्धृत किया है,) पू. महोपाध्याय यशोविजय म. के ग्रन्थों में उद्धृत सन्मति० की गाथाओं के आधार पर पू.आ. श्री प्रद्युम्नसूरिजी म. ने एक ग्रन्थ तैयार करवाया है (हस्तादर्श) जिस में पू. उपा. म.के ग्रन्थों से उन सभी अवतरणों का लेखनकार्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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