Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ 12 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा-१ साथ ही उसके उपर बैठा चक्रवर्ती सुभूम और उसकी सेना भी डूब गई और मृत्यु शरण हुई। चक्री मरकर नरकमें गया। लोभके वश बने इस चक्रवर्तीने बिना सोचे गलत कदम उठाया और की हुई भूलकी सजा भोगनी पड़ी। सचमुच लोभका अन्त नहीं है। लोभके वश बनी कई आत्माएँ भूतकालमें दारुण-भयंकर दुःख-दुर्गतिमें फंस गई और कई आत्माएँ वर्तमानमें भी फंस रही हैं। जिससे शास्त्रों में कहा है कि 'आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः। कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थवाधकः // ' " लोभ सर्व दोषोंकी खान, सद्गुणोंको खा जानेवाला राक्षस, सप्त व्यसनरूप लताका मूल और सर्व सम्पत्तिका प्रतिबन्धक है।" लोभके परवश बने सुभूमकी कार्यसिद्धि तो न हुई किन्तु असंख्य मंगल करने पर भी वापस न आ सका और कालमहाराजकी प्रबल लपेटमें बह गया। अतः कहनेका तात्पर्य यह है कि-द्रव्यमंगलमें कायसिद्धिका संशय है, जब कि तथा प्रकारका भावमंगल अवश्य कार्यसिद्धि करनेवाला है / इसीलिए हमारे शिष्टपुरुष किसी भी कार्यके प्रारंभमें भावमंगल अवश्य करते हैं / अतः ग्रन्थकार भगवानने भी 'भावमंगलरूप' 'भाव नमस्कार' किया। __ वह नमस्कार भी द्रव्य-पदार्थसे और भावसे दो प्रकारके हैं / उस द्रव्यभावनमस्कारकी चउभंगी अन्य ग्रन्थोंसे जानने लायक है। इस प्रकार मंगल करनेका प्रयोजन बतानेके साथ द्रव्य और भाव ऐसे दो भेद जतानेपूर्वक भावमंगलकी महत्ताका दिग्दर्शन कराकर अब मूल गाथाका प्रारंभ किया जाता है नमिउं अरिहन्ताई, ठिइ भवणोगाहणा य पत्तेयम् / सुर-नारयाणं वुच्छं, नर-तिरियाणं विणा भवणं // 1 // उववाय-चवण-विरह, संखं इगसमइयं गमागमणे / / 1-2 / / भावार्थ-अरिहन्तादि पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करके देव एवं नारकीके सम्बन्धमें प्रत्येककी स्थिति, भवन और अवगाहना, साथ ही मनुष्य तथा तियचकी भवनके अतिरिक्त केवल स्थिति एवं अवगाहनाके बारेमें कहूंगा। साथ ही उपपातविरह तथा च्यवनविरह और एक समयमें कितने जीव च्यवित-मृत्यु होते हैं, तथा एक ही समय में कितने जीव उत्पन्न होते हैं ? यह कहते हुए गति एवं आगति द्वार भी कहूँगा। विशेषार्थ-आर्य महापुरुषोंकी प्राचीन पद्धति के अनुसार इस बृहत संग्रहणी-सूत्रके

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