Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal

Previous | Next

Page 8
________________ दो शब्द __ आत्मा से परमात्मा बनने के लिए संवेग का मार्ग ही संपूर्ण निर्विघ्न मार्ग है। आत्मा शब्द संसारवर्ती जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है और परमात्मा शब्द मुक्ति के जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है। संसार से मुक्त होने वाला ही मुक्ति में पहुँच सकता है। संसारी आत्मा बंधन में है। बंधन अनेक प्रकार के हैं। सभी बन्धनों का मूल बंधन कर्म है। कर्म है तो दूसरे बंधन है। कर्म नहीं तो एक भी बंधन नहीं। हर समझदार आत्मा मूल की ओर लक्ष्य देता है। रोग हो तो रोग का मूल कारण नष्ट होते ही रोग नष्ट हो जाता है अतः रोग के मूल कारण को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही संसार का मूल कारण जो कर्म उसको दूर करने के लिए प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रत्यन करना चाहिए यह सिद्धांत निश्चित है। जगत में उपचार अनेक प्रकार के है। जो उपचार जहाँ कार्य कर सके वहाँ उसी उपचार को करना हितकर है। कर्म को भी रोग की संज्ञा दी हुई है। कर्मरोग को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपचार अनंतानंत तीर्थंकर भगवंतोंने दर्शाये हैं। उन सभी उपचारों में सर्व श्रेष्ठ उपचार प्रत्येक भव्यात्मा के लिए एक ही है। और वह है 'संवेग रसायण का पान करना।' यह 'संवेग रसायन दो कार्य करता है। रोग को मिटाता है और शक्ति को प्रकट करता है। संवेग शब्द का अर्थ संवेग रंगशाला नामक इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दर्शाया है संवेग यानि भव-संसार का भय और मोक्ष की अभिलाषा संसार का भय रोग को मिटाता है, मोक्ष की अभिलाषा आत्म शक्ति को प्रकट करता है। हमारे दैनिक क्रियाओं के सूत्रों में भी संवेग की बातें अनेक प्रकार से आयी हुई है उसमें सर्वश्रेष्ठसूत्र प्रार्थना सूत्र और उसमें प्रथम प्रार्थना "भवनिव्वेओ" भव निर्वेद संसार पर अरुचि अर्थात् संसार का भय, भय जनक पदार्थ पर ही अरुचि होती है। दुक्खक्खओ-कम्मक्खओ-दुःखों का क्षय-कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्षाभिलाषा। ऐसे अनेक प्रकार के शब्दों के प्रयोग द्वारा संवेग रसायण की बातें गुंथी हुई है। जिन पदार्थों से, व्यक्तियों से स्थान से जिसे भय लगता है वह उन-उन से दूर रहने के लिए सतत प्रयत्नशील होता है। यह अटल नियम है। जिन आत्माओं को संसार भय जनक है ऐसा खयाल आया वे आत्माएँ संसार से भयभीत बनी थीं, बन रही हैं और बनेगी। संसार से भयभीत आत्मा को संसार बंधन स्वरूप लगता है, बंधन का कारण कर्म है तो अब कर्म से मुक्त बनने के लिए प्रयत्न करना और कर्म रोग है रोग को मिटाने के लिए रोग का निर्णय किया जाता है। जगत में एक न्याय प्रचलित है लोहा लोहे से कटता है। वैसे कर्म को मिटाने के लिए कर्म ही करना। कर्म के दो भेद है शुभ-अशुभ। अशुभ को दूर करने के लिए शुभ कर्म करना। शुभ कर्म काया से, वचन से, एवं मन से होते हैं। इन तीनों योगों से शुभ कर्म करने के लिए अतीव विस्तृत मार्गदर्शन इस 'संवेगरंगशाला' नामक ग्रंथ के अन्दर प्राप्त होता है। संवेग के रंग रूप शुभ कर्म से अशुभ कर्म रूप कचरा निकल जायगा फिर शुभ कर्म भी अल्प मानसिक प्रयास से दूर हो जायेंगे। कर्म दूर होते ही आत्मा अपने मूल स्वभाव में आकर अपने स्वयं के घर में स्वगृह में जाकर निवास करेगा। यह ग्रंथ वि.सं. ११२५ में रचा गया है। रचनाकार श्री जिनचंद्रसूरिजी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरीश्वरजी के बड़े गुरुभ्राता है। अतः इन्होंने आगम ग्रन्थों का अमृत खोज-खोजकर इस संवेगरंगशाला में भर दिया है। आ.श्रीमुक्तिप्रभ सूरीश्वरजी की प्रस्तावना में आ. श्री. पद्मसूरीश्वरजीने हिन्दी अनुवादकर प्रस्तावना में इस ग्रंथ के विषय में विचार व्यक्त किये है। जो इस संपादन में वे प्रस्तावनाएँ दी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 436