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के सूत्रों से तो ऐसा लगता है कि जो सामान्य प्राकृत के लक्षण हैं वे ही प्रायः अर्धमागधी प्राकृत के लिए भी लागू होते है और कुछ विशेषताओं के लिए, उन्होंने बीच-बीच में वृत्ति में उल्लेख कर दिया है । प्रारंभ में ही 'आर्षम्' का सूत्र दे कर उसकी वृत्ति में (8.1.3) उन्होंने जो कहा है कि 'बहुलं भवति' एवं 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' -अर्थात् आर्ष में बहुलता पायी जाती है और उसमें सभी विधियाँ घटित होती हैं । इससे तो यही साबित होता है कि अन्य भाषाओं का व्या मरण लिखने का श्रम किया परन्तु अर्धमागधी के लिए ऐसा नहीं किया क्योंकि उस साहित्य में से प्राचीनता-लक्षी विशेषताओं को अलग करने में बड़ी कठिनाई उनके सामने रहो हो। इस तरह का रूख अपनाने के कारण ही पं. श्री रुख बेचरमाई दोषी अपने 'प्राकृत व्याकरण' में अर्धमागधी को कोई एक अलग भाषा मानने को तैयार ही नहीं हुए। हाला कि इसकी आलोचना श्री हरगोविन्ददास सेठ ने की है और पिशल ने तो अर्धमागधी को अलग भाषा का दर्जा दिया ही है ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि भरतमुनि ने अपने नाटयशास्त्र में सात भाषाओं के साथ अर्धमागधी भाषा को एक कीर्ति-प्राप्त स्वतंत्र भाषा के रूप में गिनाया है ।
पू. हेमचन्द्राचार्य अपने व्याकरण की प्रशस्ति में अलग से एक नया व्याकरण लिखने का कारण बतलाते हुए कहते हैं कि वे निरवम (न्यूनता रहित) और विधिवत् व्याकरण बना रहे हैं । अर्धमागधी के विषय में क्या उनका यह विधान लागू होता है १ 'बहुलम्' और सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' कह देने से आर्ष भाषा को कितनी बड़ी स्वतंत्रता मिल गयी और व्याकरणकार भो सभी बन्धनों से मुक्त हो गये हो ऐसा ही प्रतीत होता है ।
इस परिस्थिति के होते हुए भी अर्धमागधी की अपनी लाक्षणिकताओं के विषय में क्या एक स्वतंत्र व्याकरण का विधान किया जा सकता था इसी मुद्दे पर इस चर्चा-पत्र में विचार किया जा रहा है।
आर्ष की विशेषताओं के उल्लेख
- आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में सूत्रों की वृत्ति में अलग अलग स्थलों पर आर्ष भाषा (अर्धमागधी ) की विशेषताओं के बारे में 31 बार उल्लेख
1. पाइय-सद्द-महण्णवो, 1963, उपोद्घात, पृ. 35.
2. पिशल, 18-17.
3. ...... सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः-भ.ना.शा., 17.47.