Book Title: Sambodhi 1989 Vol 16
Author(s): Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 281
________________ २२ दोहा - उपहार देहने जरा-मरण संभवे हे ज रोग थाय छे. तुं जाणी ले के देहना ज विविध वर्ण होय हे. देहने मात्र देहने ज जाति होय . ३४ जरा, मरण, रोग, जाति के वर्ण आत्माने के नहीं के थतां नथी. ए नक्की जाण के जीवने ( आमांनी ) एके संज्ञा होती नथी. ३५ जो कर्मना भावने आत्मा कहेतो होय तो तु परमपद पामीश नहीं अने फरी संसारमां भमीश. ३६ ज्ञानमय आत्मभाव सिवायनो बीजो भाव तो परभाव ले. ते छोडीने हे जीव ! तुं शुद्ध स्व ( आत्मा ) भावनुं ध्यान कर. ६७ वर्णविहीन अने ज्ञानमय स्वात्मनी भावना जे करेले ते ज शांत, निरंजन अने शिव छे. तेमां ज अनुराग करवो जोईए. ३८ त्रिभुवनमां जिनदेव देखाय छे, जिनवरमां आ त्रिभुवन ( समायेल ) ले. जिनवरमां सकळ जगतनुं दर्शन थाय छे. माटे ए वेमां कई भेद न करवो जोईए. ३९ जिनने जाणो, जिनने जाणो - एम (कोई ) कहे . पण हे सखि ! जो ज्ञानमय आत्मा देहथी भिन्न छे ए जाणी लीधुं तो बीजं शुं जाणवानुं ४० ह्युं ? जिनने वंदन करो, जिनने वंदन करो- एम (कोई ) कहे . पण ख परमार्थ जाणी लीधा पछी पोताना देहमां बसे के तेने अहीं कोण वंदन करे ? ४१ हे जोगी ! बंधन काढी नाखी ( मनरूपी ) करमने मुक्तपणे फरवा दे. जेनुं अक्षय निरामय ( परमात्मा ) मां मन गयुं छे तेवो ज्ञानी माणस संसारमा केम आसक्त थई शकशे : ४२ पांच इन्द्रियोना विषयमां ढीलो न था. बेने रोक काबुमा राख अने बीजुं पराई स्त्रीने विषे संयम कर. एक तो जीभने ४३

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