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दोहा - उपहार
ર૩
आत्माने नित्य अने केवळज्ञानमय स्वभाववाळो जाण्यो तो पछी हे मूढ ! शरीर उपर अनुराग शाने करवो जोईए ?
२२
चोरासी लाख योनि मध्ये अहीं एवी कोई जभ्या नथी के ज्यां जिनवचननो लाभ न पामनारो जीव भटक्यो न होय
२३
जेना मनमां ज्ञान प्रगट्ये नथी तेवो मुनि सकळ शास्त्र जाणतो होवा छतां, कर्मनाकारणाने उत्पन्न करतो होवाथी सुख पामतो नथी, २४
हे अबोध जीव ! तुं तत्त्वने ऊंधुं समज्यो के के कर्मनिर्मित भावोने तु आत्माना भावो कहे हे.
२५
हुं गोरो छु, हुं शामळो छु, हुं जुदा जुदा वर्णवाळो छु, हुं पातलो छं, हुं जाडो छु - एवं हे जीव ! न मान.
२६
न तुं पंडित के के न मूर्ख न तुं समृद्ध छे के न दरिद्र, न तुं कोईनो गुरु छे के न शिष्य. ए बधामां कर्मनी विचित्रता छे.
२७
न तो तुं कारण ले के न कार्य, न तो स्वामी हे के न दास. हे जीव ! तुं शूर पण नथी के कायर पण नथी, उत्तम नथी के अधम पण
नथी.
२८
पुण्य के पाप, काळ के आकाश, धर्मास्तिकाय के अधर्मास्तिकाय -- चेतनभाव छोडी ( आमानुं ) एक पण हे जीव ! तुं नथी. २९
न तो गोरो के न शामळा न तु एके रंगनो हे. पातळा के न - एवं तारुं रूप जाण.
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जाडो
३०
तो
हुं उत्तम ब्राह्मण नथी, न वैश्य हुँ. नथी क्षत्रिय के न शेष ( शुद्र ); पुरुष, नपुंसक के स्त्री नथी एवं विशेष जाण.
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३१
हुं तरुण छु, वृद्ध छु के बाळक छु, शूर छु, दैवी पंडित छु, क्षपणक (दिगंबर), बंदक (बौद्ध) के श्वेताम्बर मुनि छु - एवं कई विचार मा.
३२
देहना जरा मरण जोईने हे जीव ! तुं गंभरा नहीं. जे अजरामर परम ब्रह्म छे तेवा आत्माने ओळख.
३३