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प्रयोग हैं उन सब में अधिकतर ये अनुनासिक व्यंजन ही प्रयुक्त है न कि उनके बदले अनुस्वार ।
अमुक विशेषताओं का उल्लेख ही नहीं अर्धमागधी की जिन जिन विशेषताओं का आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उल्लेख ही नहीं हुआ है वे इस प्रकार हैं । इनमें से कुछ तो बहुप्रचलित हैं और कुछ कभी कभी कहीं पर प्राचीनता के रूप में बच गयी है। अ. बहु-प्रचलित
(1) सप्तमी एक वचन की विभक्ति-अंसि : उदाहरण - नयरंसि, लोगसि, रायहाणिसि (2) हेत्वर्थक कृदन्त का प्रत्यय-इत्तए (3) चतुर्थी विभक्ति (पुं. अकारान्त ए. व. की) - आए (4) संबंधक भूतकृदन्त प्रत्यय-इयाण, - इयाणं (5) -उचा प्रत्यय का सं. भू. कृ. के अन्य कृदन्तों के साथ उल्लेख नहीं हुआ है ।
हाँ स्व - च्च के प्रसंग पर अवश्य दिया गया है (8,2.15 सोचा, भोच्चा, णच्चा)।
ब.
क्वचित् प्राप्त [i] अकस्मा या अकस्मात् के प्रयोग, [ii] त श्रुति के विषय में, [iii] मध्यवर्ती त और थ के बदले में क्रमशः द और ध के प्रयोग, [iv] तृ. ब. ब. की विभक्ति -भि,
सार्वनामिक सप्तमी एक वचन की विभक्ति -म्हि, [vi] स्त्रीलिंगी एक वचन की विभक्तियाँ -या और य, [vii] वर्तमान कृदन्त का प्रत्यय-मीन और [viii] भूतकाल का तृ. पु ए. व. का प्रत्यय -इ।
___ इन विशिष्टताओं में त और थ के बदले में द और ध के प्रयोग मागधी और शौरसेनी के अवश्य हैं परंतु ऐसे प्रयोग कभी कभी पालि में भी मिलते हैं और प्राचीन शिलालेखों में मिलते हैं । -भि विभक्ति पालि के प्राचीन साहित्य में मिलती है । स्त्रीलिंग की --या और -य विभक्तियाँ प्राचीन शिलालेखों और पालि भाषा में मिलती है। वर्तमान कृदन्त -मीन अशोक के शिलालेखों में पूर्व में और दक्षिण में मिल रहा है। भूत काल का-इ प्रत्यय पालि में मिलता है और इसिभासियाई में भो ।
- ये सब विशेषताएँ अर्धमागधी के प्राचीन साहित्य में किसी न किसी तरह बच गयीं क्योंकि अर्धमागधी साहित्य का प्रारंभिक काल तो उतना ही पुराना है जितना पालि का और उस साहित्य के सर्जन का प्रदेश भी पूर्व भारत हो रहा है जहाँ भगवान महावीर ने और भगवान बुद्ध ने उपदेश दिये थे और उसी प्रदेश में अशोक के शिलालेखों में भी ऐसी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं । अतः इन प्राचीन तथ्यों को ध्यान में लेना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इनसे अर्धमागधी की मागधी भाषा के जितनी ही प्राचीनता सिद्ध होती है ।