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पूर्वरंग
न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः दाह्यनिष्ठदहनस्येवाशुद्धत्वं, यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् ज्ञायक एव ॥ ६ ॥
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" भावार्थ - अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से आती है। उसमें मूलद्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, मात्र परद्रव्य के निमित्त से अवस्था मलिन हो जाती है। द्रव्यदृष्टि से तो द्रव्य जो है, वही है और पर्याय (अवस्था) दृष्टि से देखा जाये तो मलिन ही दिखाई देता है।
इसीप्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञायकत्वमात्र है; और उसकी अवस्था पुद्गलकर्म के निमित्त से रागादिरूप मलिन है, वह पर्याय है । पर्यायदृष्टि से देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्यदृष्टि से देखा जाये तो ज्ञायकत्व तो ज्ञायकत्व ही है; वह कहीं जड़त्व नहीं हुआ।
यहाँ द्रव्यदृष्टि को प्रधान करके कहा है । जो प्रमत्त- अप्रमत्त के भेद हैं, वे परद्रव्य की संयोगजनित पर्यायें हैं । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टि में गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है। द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है । इसलिए आत्मा ज्ञायक ही है; उसमें भेद नहीं है; इसलिए वह प्रमत्त- अप्रमत्त नहीं है ।
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'ज्ञायक' नाम भी उसे ज्ञेय को जानने से दिया जाता है; क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है, तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव होता है; तथापि उसे ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ, , वैसा ज्ञायक का ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है ।
'यह जो मैं जाननेवाला हूँ, सो मैं ही हूँ; अन्य कोई नहीं' - ऐसा अपने को अपना अभेदरूप अनुभव हुआ, तब इस जाननेरूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है और जिसे जाना, वह कर्म भी स्वयं ही है । ऐसा एक ज्ञायकत्व मात्र स्वयं शुद्ध है। यह शुद्धनय का विषय है । अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं, वे सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।
• अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्धद्रव्य की दृष्टि में पर्यायार्थिक ही है, इसलिए व्यवहारनय ही है - ऐसा आशय समझना चाहिए।
यहाँ यह भी जानना चाहिए कि जिनमत का कथन स्याद्वादरूप है, इसलिए अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ न माना जाये; क्योंकि स्याद्वाद प्रमाण से शुद्धता और अशुद्धता - दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तु का सत्त्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होती है ।
अशुद्धनय को यहाँ हेय कहा है, क्योंकि अशुद्धनय का विषय संसार है और संसार में आत्मा क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्य से भिन्न होता है, तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है ।
इसप्रकार दुःख मिटाने के लिए शुद्धनय का उपदेश प्रधान है।
अशुद्धय को असत्यार्थ कहने से यह न समझना चाहिए कि आकाश के फूल की भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है। ऐसा सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है; इसलिए स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्धनय का आलम्बन लेना चाहिए । स्वरूप की प्राप्ति होने के बाद शुद्धनय का भी आलम्बन नहीं रहता । जो वस्तुस्वरूप है, वह है - यह प्रमाणदृष्टि है। इसका फल वीतरागता है । इसप्रकार निश्चय करना योग्य है ।
यहाँ (ज्ञायकभाव) प्रमत्त- अप्रमत्त नहीं है - ऐसा कहा है । वह गुणस्थानों की परिपाटी में छट्ठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवें से लेकर अप्रमत्त कहलाता है, किन्तु ये सब गुणस्थान अशुद्धय की कथनी में हैं; शुद्धनय से तो आत्मा ज्ञायक ही है । "
१. समयसार, गाथा-६, पण्डित जयचन्द छाबड़ाकृत आत्मख्याति टीका का अर्थ और भावार्थ, पृष्ठ-१६-१७