Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 222
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -गंग । देत । वितन वृषेस लंकहू को अधिपति बिपति वितंड में। । विरचावना-क्रि० सं० [सं० वि+रंजन] उचा टना, उदासीन करना, विरक्त करना । वितन-संज्ञा, पु० [सं०] विनातन का, विदेह, उदा० घोर घने गरज घन ए ससिनाथ हियो कामदेव । विरचावन लागे। -सोमनाथ उदा० ग्रीषम मैं गति सिसिर बन, निबिड द्यौस विरज-वि० [सं० वि+रज] विकार रहित, अंधियार । मुख उजियार करत तहाँ दंपति स्वच्छ, निर्मल। वितन विहार। -नागरी दास उदा० रावरी चरन रज सेवत सुरेस अज जोगी विदेह-संज्ञा, पु० [सं०] १. कामदेव २.. जनक जे विरज, सबै सैल लता द्रुम ही। जी । -देव उदा० १. देव नयो हिय नेह लगाय, विदेह कि कंस महाराज को रजकु राजमारग मैं अचिन देह दहयो करै। -देव अंबर विरज लीने रंग रंग गहिरे। विद्याधर-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवताओं की एक ___--. देव जाति .. विद्वान । विष - संज्ञा, पु० [सं०] १. जल २. जहर । उदा० कवि कुल विद्याधर, सकल कलाधर, राज उदा० १. विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल राज वर वेश बने । -केशव -केशव विद्वोत-वि० [सं० विदित] विदित, ज्ञात, विषमहय-संज्ञा, पु० [सं०] विषम अश्व वाला, मालूम । सप्तहय, सूर्य । उदा. मरदन सिंह महीप सुत, बैस बंस विद्वोत उदा० प्रगट भयो लखि विषमहय, विष्नुधाम करौ सिंह उद्दोत को, राधा हरि उद्वोत । सानंदि । सहसपान निद्रा तज्यो, खुलो -देव पीतमुख बंदि । -दास विधिवधू-संज्ञा, स्त्री० [सं.] ब्रह्मा की पत्नी | विषमेषु-संज्ञा, पु० [सं० विषम +इषु] कामदेव सरस्वती । मन्मथ । उदा. देव यही मन आवत है सविलास वधू विधि उदा. डासी वा बिसासी विषमेषु विषधर, उठे _ है बहुधा की । आठहूँ पहर विष विष की लहरि सी। विपंची-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की -देव वीणा २. क्रीड़ा, खेल । विषै-अधि० [सं०] में, प्रधिकरण कारक की उदा० १. नवल बसंत धुनि सुनिये विपंची नाद विभक्ति । पंचम सुरनि ठानि, मोठनि अमेठिये ।-देव उदा० दमु ना मिलत जमुद्तन के देह विर्ष, विमन-वि० [सं० वि+मन] खिन्न, उदासीन । -ग्वाल उदा० ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की, डासी वा बिसासी विषमेषु, विषधर उठे विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी । पाठहू पहर विष विष की लहरि सी।-देव --देव वीछन-संज्ञा, पु० [सं० वीक्षण] दृष्टि, चितवन, विमान-वि० [सं. वि+मन] मान रहित, गवं देखना । रहित । उदा० तीछन वीछन बाननि तानति, भौंह कमान उदा०ब्रज की अवनि ताकि वनिता विमानन की. - तनी मुख चंद पै । -देव विमन विमान ह्व विमुख मुख सुन्दरी। वृख-दण्ड संज्ञा पु० [सं० वृक्ष दण्ड] लकड़ी -देव का डंडा। विरंग-वि० [सं०] बदरंग, बुरारंग, फीका । उदा० व्याधि को बैद, तुरंग को चाबुक, चीपग उदा. ग्वाल कवि कहै तेरे विरही विरंग ऐसे को वृख दण्ड दियो है। -गंग गिरही तिहारे तें बरगने रिस जोरे हैं। वृषेस-संज्ञा, पु० [सं० वृषेश] नांदिया, शंकर --ग्वाल __का वाहन । विरंदन-संज्ञा, पु [सं वृन्द] वृन्दों, समूहों।। उदा० सेस भले देस औ महेस के वषेस भले उदा० कवि 'सुरति' जे सरनागत पाल हैं, दायक । भ्रमत भवानी को भुलानो वृषकेत है। सुक्ख विरंदन के । -सूरतिमिश्र -चन्द्रशेखर -देव For Private and Personal Use Only

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