Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 241
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -देव ( २२७ ) सोर-संज्ञा, पु० [फा० शोर] १. ख्याति, लरिकाई के सौंरियत, चोर मिहचनी खेल । प्रसिद्धि २. कोलाहल । मुहा० सोर पारना= -मतिराम प्रसिद्धि फैलाना। सौहजार मन-संज्ञा, पु० [हिं० सौहजार-लक्ष उदा. पार्यो सोर सुहाग को इन बिनही पिय +मन (मण)] लचमरण । नेह । उदा० है दुपंच-स्यंदन-सपथ, सौ हजार मन उनिदोहीं अखियाँ ककै कै अलसौंहो देह ।। तोहि । -दास -बिहारी सौहर-संज्ञा, पु० [सं० शोभन, हिं० सुघर ] सोरई-वि० [सं० श्याम] काला, श्याम । सुन्दरता, सुघरता । उदा० श्रापु जरि गयो, जग जारत जरेऊ पर, । उदा० तरवा मनोहर सु एड़ी मृदु कोहर सो सुमननि दुमन सुमन सर सोरई। -देव सौहर ललाई की न ह्व है लाल गन मैं । सोस--संज्ञा, पु० [फा० अफसासा शोच. चिता । -दास उदा० नेक निसि नासिहै तो नारिन सकैगी सहि. स्यान-संज्ञा, पु० [सं० सज्ञान] चतुराई, होशिमनसिज सोस संक मेरे संग नासु रे । यारी । -पालम उदा० कन्त बिन विषम बसन्त रितु तामे प्रति सोसिनी--वि० [फा० सोसन] सोसन के फूल के विषम विषमसर बेष तन स्यान के। रंग जैसा, नीला रंग जो लालो लिए हो। उदा० सारी सनी सोसिनो सँमारि के करार पै । स्यामा-संज्ञा, स्त्री० [सं० श्यामा ] षोडशी, -ग्वाल सालह वर्षी युवती, नवयौवना। सोहर-संज्ञा, पु० [सं० सूतगृह] वह स्थान जहाँ उदा. संदरि स्यामा सलोनी चिसारि. बसे प्रसूता नवजात शिशु को लेकर रहती है। . ससुरारि सनेह सने हो। -बेनी प्रवीन उदा० बंचति न काहू, लचि रंचि तिरछाई डीठि । स्याँ-अव्य० [बं०] सहित, साथ। __ संचति सुजस, मचा संचति के सोहरे । उदा० सायक सो महिनायक साँध्यो । सोदर स्यों - रघुनायक बाँध्यो । -केशव सौतनि-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सैंतना ] संचय, स्रवन-संज्ञा, पु० [सं० श्रवण ] १.श्रवण नामक संग्रह । बाईसा नक्षत्र जिसमें गन्ना पकता है२. कान, उदा० सफल होइ सौतनि सब दिन की एक बेर | कर्ण बिरह दुख टारी । -घनानन्द उदा० मानह पियुष बाढ़ स्रवन की भूख माह पुख सौरई-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सौंडचादर, ओढ़ना। कैसे ऊख बोल रावरे मिठात है।-सेनापति उदा० भोरी मोरी मई कान्ह पूछति है कान | स्वच्छ पक्ष--संजा, पु० [सं०] सफेद पंखों वाला, __लागि, साँवरे के अंग लागे सोइहीं न हंस पक्षी। सौरई। उदा ० पद पद हरिबासा जगमग । स्वच्छ पच-पच्च सौतुक-क्रि० वि . [सं० सम्मुख] प्रत्यक्ष, प्रकट, सी लगे। -केशव सामने, आँखों के प्रागे । स्वर-संज्ञा, पु० [सं० ] कंठ ध्वनि, काकु । उदा० पिय-मिलाप को सुख सखी, कहो न उदा० बक्र उक्ति स्वर स्लेष सों प्रथफेर जौ होई जात अनूप । रसिक अपूरब हो पिया बुरो कहत नहि कोइ सौतुक सो सपनो भयो, सपनो सौतुक रूप । -जसवंतसिंह --मतिराम सौन--संज्ञा, पु० [? ] गुलाल । स्वाहेस-संज्ञा, पु० [स०स्वाहा+ईश ] अग्नि, उदा० कित की भोरहीं पाई जमुना जल तुम घर पावक, पाग । तेल निकसे सौन । -घनानंद उदा० पन्नगेस,प्रतेस सुद्धसिद्धेस देखि पब । विहगेस सीरना-क्रि० स०[ सं ० स्मरण] स्मरण करना स्वाहेस देव देवेस सेस सब । -केशव उदा० साँवरो सँवारे सैन सुनि री सवारे ह सों, स्वै-सर्व० [सं० स्व ] स्व, पपना।। ऐसी सैन सौंरि क्यों न आप को संवारिये। । उदा० लेकर कागद कोरी लाला लिखिबे कहें बैठी -आलम वियोग कथा स्वै -द्विजदेव -देव -गंग For Private and Personal Use Only

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