Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 240
________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सेली ( २२६ ) सोबर । सूल सेलनि सों क्योंहू न भुलाय है । उदा० सैवी जानि मौको लोग कासी को पठाबत घनानंद हैं प्रावत न मेरे मन कान न धरत हैं। -ग्वाल सेली-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सेला] १ छोटा दुपट्टा सैसो-संज्ञा, पु०[सं०शङ्का शङ्का, संदेह, संशय। २. गाँती ३. वह माला जिसे योगी लोग पहनते हैं उदा० एक दिन ऐसो जामें सिबिका है गज बाजि उदा० १. जोग तुम्हें न इतो कहिकसि सेली ते एक दिन ऐसो जामें सोइबे को सैसो है। -गंग खोलिके सींगी देखाई। -रघुनाथ सोधो-संज्ञा, पु० [सं० सुगन्ध] इत्र आदि, सुगं२.सुमा फटिक माल लाल डोरे सेली पैन्हि मई धित पदार्थ जिसके लेप से शरीर सुवासित हो हैं अकेली तजि चेली संग सखियाँ। -देव जाता है। सेवट-संज्ञा, पु० [?] बाल का ढेर, सेउटा । उदा०पाई हुती अन्हवावन नायनि सोंधो लिये उदा० लौंग फूल दल सेवर लेखी । एल फूल दल कर सूधे सुनायनि ! -देव बालक देखो। -केशव मिहेंदो रंग पायनि रंग लहै सुठि सोंधो सु सै-संज्ञा, स्त्री० [सं० शय] प्राण, प्रतिज्ञा, शय अंगिन संग बसै । -घनानन्द २. डटना पावै पास-पास पुहुपन की सुबास, सोई उदा० अब तो रति कीजत से करिक, तब पाँय सोंधे के सुगंध माँझ सने रहियत है। परेहूँ न मानिय तौ । - गंग -सेनापति बीती न धरीक या सरीकनि सखी के कहे, सोकना-क्रि० अ० [हिं० सूखना] सूखना, शुष्क सैकरि हौं रही सोक संक मैं सकरि कै-देव पड़ना । सैकरि अधिक मदि के आँखझुकी-सीकरी उदा० जान कह.यौ पिय पान पुरी कों डरी तिय पलके चयलायकै -कृष्ण कवि । प्रान अचानक सोका । सैक-वि० [स०शत +एक ] शतक, एक सौ - भूषण उदा०तेरे ही परोस कोस सैक के सरोस ह ह' सोधि - क्रि० वि० [सं० शोध ] अच्छी तरह, __ कैसी कैसी सेना कीनी कतलू पठान की-गंग भली भांति । उदा. सिंधु बांधत सोधि के नल छीर छींट सैंतुक-क्रि० वि० [सं० सम्मुख प्राख के सामने, बहाइयो। -केशव पागे, प्रत्यक्ष । उदा० सांचहू स्याम मिले तुमैं सैंतुक सैंतुक नाहि सोन-संज्ञा, पु० [सं शोण] १. रक्त, लाल २. परी सपने में - पद्माकर स्वर्ण, ३. धतूरा ।। सँधौ-संज्ञा, पु० [सं० सैंधव] सिन्धु देश का उदा० १. देव मनोज मनो जु चलायो चितौनि मैं __सोन सरोज को चावक । -देव घोड़ा मुहा० सैंधव पलानना-घोडे आदि पर ३. मंग गंग सोन हित भसम भुजंग सोन पलान कसना, भागना, प्रस्थान करना, जाना । अंग लागे अंगराग अंगना के अंग के । उदा० मानिये बेनी प्रवीन कही मौन मानिये तौ -देव क्यौं पलानत संधी। . -बेनी प्रवीन सोनचिरी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० सोना+चिड़िया] सैन-संज्ञा, पु०[सं० संज्ञापन] पलक २. इशारा, नटनी, तमाशा दिखाने वाली। संकेत, चिन्ह ३.शयन उदा० आजु सखी लखो सोन चिरी, वृषभान के उदा० १.बिलखी लखै खरी खरा भरीअनख बैराग द्वार जुरे जुर गेदन । -बेनी प्रवीन मृगनैनी संन न भज, लखि बेनी के दाग - बिहारी सोनी-संज्ञा, पु० [सं० स्वर्णकार] स्वर्णकार, सैफ-संज्ञा, स्त्री० [प्र० सैफ] तलवार, खड्ग सोनार । उदा० सैफन सों तोपन सों तबलरू ऊनन सों, उदा० छिति कैसी, छोनी रूप-रासि की पकोनी दक्खिनी दुरानिन के माचे झकझोर हैं। -कवीन्द्र गढ़ि, गढ़ी बिधि सोनी गोरी कुंदन-से गात सैलुस - वि० [फा० सालस] छलिया, नक्काल । की। -देव उदा० नहिं दाडिम सैलूस यह, सुक न भूलि | सोबर-संज्ञा, पु० [सं० सुवर्ण] सुवर्ण, स्वर्ण, श्रम लागि । -दीनदयाल गिरि सोना । सैवी-संज्ञा, प्र० [सं शैव] शिवोपासक, शंकर उदा० रावर की छबि बरनौं कैसें । सोबर को का भक्त । घर सोहत जैसें. -घनानन्द For Private and Personal Use Only

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