Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 233
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जया वारसणि सारण सारस गिराया, इस पोनी स्याम लीला माह कापिला कर सारिख ( २१६ ) सिदूख उदा. सारसनि सारस ने, सारस निरास, हस । चीनी स्याम लीला माह काविली जनाई सारस तुसार गिरि सार गुनियत हैं। -बेनीप्रवीन -देव सुखवायक-संज्ञा, पु० [सं०] १. देवराज, इन्द्र ४. सारस सारस नैनि सुनि, चन्द्र चन्द्रमुखि २. सुख देने वाले । देखि । -केशव उदा. गणपति सुखदायक पशुपति लायक, सूर सारिख-वि० [सं० सदृश] सदृश, समान, तुल्य सहायक कौन गनै । -केशव बराबर। सुगथ-वि० [सं० सुग्रथ] सुन्दर तरह से गुथे उदा० सोई लगी शशि के मुख कारिख पौ तेहि गये, सुन्दर ढंग से जोड़ मिलाये गये। सारिख कौन बतायो। -गुमान मिश्र उदा० इहिं द्वहीं मोती सुगथ तं, नथ, गरबि सारी-संज्ञा, स्त्री [सं० सारि] गोट, पासा। निसाक। -बिहारी उदा० सेजमैंन सारी सीहें सारी बिसारी सी है।। सुचंद-वि० [?] श्रेष्ठ, उत्तम । - पालम उदा० गुन-ज्ञान-मान सुचंद है। नित करत खलसालमंजी-संज्ञा, स्त्री० [सं० शालम जी] शाल मुख मंद है। -पदमाकर मंजिका, मूर्ति, गुड़िया। सिखावान-संज्ञा, पु० [सं. शिखावान] अग्नि, उदा० तरुन तमाल तरु, म जुल प्रबाल मी जि- माग । मंजरी रसाल बाल मंजी सालभजी सी उदा० सिखावान-कर-कलित जलज अक्षत सिर -देव सोहै। -केशव सासल्य-वि० [सं० स+शल्य] पीड़ा सहित, सिखिचंद-संज्ञा, पु० [सं० शिखि चन्द्र] मयूर शल्य युक्त । चंद्रिका, मोर चंद्रिका । उदा० भक्ति भाव भक्तनि विषे, लघुनि प्रीति उदा० कवि 'मालम' भाल के उरध यों उपमा वात्सल्य । कार्पण्यं निजजन कृपण, सांति सिखि चन्द्र की पंति धरी । -आलम सोक सासल्य । -देव सिखी-संज्ञा, पु० [सं० शिखिन्] अग्नि, पावक सासौ-संज्ञा, पु० [हिं० सांसत] संकट, घोर २. मोर ३. कामदेव । कष्ट । उदा० सिखी की जारो जिय सिंह को विदारयो उदा० अरु तुम कमलजोनि त छूटी। श्राप ताप जिये बरछी को मारयो जिय वाको भेद की सासौ तूटौ । -जसवंतसिंह पाइय। साहि-संज्ञा, पु०फा० शाहीं] १. एक प्रकार सिख्या--संज्ञा, स्त्री० [सं० शिष्या] शिष्या, का बाज २. शाहजहाँ बादशाह । चेली । उदा० सामा, सेन, सयान की सबै साहि के साथ। उदा० चेदिपति खेदिपति राख्यो ब्याह वेदिक, -बिहारी । हौं अन्तर निवेदि, देव दासिनु की सिख्या सिकलना-क्रि० स० [हिं॰ सकेलना] एकत्रित ही। -देव होना, इकट्टा होना। सिंगरफ-संज्ञा, पु० [ १. ईगुर।] उदा० अकबर साहि जू के महाबली दानसाहि, उदा० केसरि सुरंग सिंगरफ सों रँगीले डील, रावरे सिकार ए तो दल सिकलत है । डडहे सील के जे पानद सुहेले में । -गंग -सोमनाथ सिखंड-संज्ञा, पु० [सं० शिखंड] १. मोरपंख, सिजित-संज्ञा, स्त्री० [स० ] करधनी, कमर मयूर की पूंछ २. चोटी। में पहनने का एक आभूषण २. प्राभूषणों की उदा० १. सौई घनानंद सुजान रूप को पपीहा, ध्वनि । सोभा सींव जाके सीस मंडित सिखंड | उदा० भ्र व मटकावति नैन नचावति । सिंजित है। -घनानन्द सिसिकिन सोर मचावति ॥ -दास. सुखचीनी-संज्ञा, पु० [सं० चीनांशुक, चीनी + सिंदूख-संज्ञा, स्त्री० [प्र. संदूक] अंबारी, हाथी सुखा एक प्रकार का रेशमी वस्त्र जो चीन देश | . की पीठ पर रखने का हौदा जिसके ऊपर एक से पाता था। छज्जेदार मंडप होता। उदा० चषमति सुमुखी जरद कासनी है सुख, । उदा० सोने की सिंदूख साजि सोने की जलाजले बोधा For Private and Personal Use Only

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