Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 235
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिलहखाना ( २२१) सुंडाहले सिलहखाना--संज्ञा, पु० पि. सिलाह+खाना] | सीथ-संज्ञा, पू० [सं० सिक्था भात का दाना । १. शस्त्रागार २. जिरह बकतर, कवच । उदा०-बंस की बिसारी सुधि कोक ज्याँ चुनत उदा. सूकर सिलह खाने.फकत करीस हैं।-भूषण फिरौ जूठे सीठे सीथ सठ ईठ दीठ ठाये हो । सिलाह-संज्ञा, पु. [म.] कवच, २. हथियार। -केशव उदा० सिरमौर गौर गराजि कै सोभित सिलाहैं सीमंत - संज्ञा, पु० [सं० सीमन्तोन्नयन] सीमन्त साजि कै। -- पद्माकर संस्कार, ब्राह्मणों के दस संस्कारों में एक सिलाही-संज्ञा, पु० [प० सिलाह] कवचधारो, संस्कार, जो स्त्री के प्रथमतः गर्भवती होने पर शस्त्रधारी, सैनिक । मूल शांति के निर्मित चौथे, छठवें या आठवें उदा० झमकत पावै मुंड मलनि मलान मप्यो, महीने में होता है। २. स्त्रियों की मांग ।। तमकत भावै तेगवाही पो सिसाही । उदा. कन्त चोक सीमन्त की, बैठी गांठि जुराय -पदमाकर पेखि परोसिनि कौं प्रिया, चूंघट में मुसकाय सिहाना-क्रि० प. सं. ईर्ष्या] .. हर्षित -मतिराम होना, २. ईर्ष्या करना ३. प्रतिस्पर्धा करना । सीर-संज्ञा, पु० [फा० शीर ] १. खीर दूध उदा० १. भव तातें धरौ हमारे उर निज इक २. शीतल [वि., सं० शील] ३. जल । कर कमल सिहाने। -सोमनाथ उदा० १. कोऊ एक ऐसो होह मेरो ज्यो तो में सिहारना-क्रि० स० [देश॰] १. ढूंढना, तलाश देहु, सीर सी सिराई राति जाति है दई करना २. जुटाना । -गंग उदा० संकमरी परजंक पलोटति अंक मरो किन २. बीर सीर कहत न बने, धीर कौन स्याम सिहारी। .-चन्द्रशेखर ठहराय जो जानै जाकै लगै, दुग बिसहारे सी-संज्ञा, स्त्री० [सं० श्री] श्री, शोभा, कांति, हाय । - नागरीदास छवि । ३. बाढ़ी प्रेम घटानि, नैन सीर को कर उदा. रति तो घरू के है. रमासी एक ट्रक. सो लग्यो । -ब्रजनिधि मरू कै हौं सराहों हौंस राधे के सुहाग सीरे-वि० [सं० शीतल1. शीतल क्षीण, नष्ट । की । -देव उदा० ग्वाल कवि कहैं कीर कैदी में किये हैं केते नैसिक सी पै निकाइन की निधि ऐसी रसी तीर पंचतीर के तके ते होत सीरे से । बिधि कैसी ढरेगी। --देव -वाल सोक-संज्ञा, स्त्री० [फा० सीख] लोहे की पतली सीराजी-संज्ञा, पु०[?] एक प्रकार का कबूतर लम्बी छड़ । उदा० गोरे तन कारे चिकुर, छुटे पीठ छवि देत । उदा० बीच बीच सुबरन की बनी । सीकै गज सीराजी राजी मनौ न्हाय फरहरी लेत । दंतन को घनी। -केशव -नागरीदास सीचन्द-वि० [?] बढ़कर उत्तम श्रेष्ठ । सीवी-संज्ञा, स्त्री०, [अनु० सीसी] सिसकारी, उदा० चन्द ते सिचन्द मुख पमन पमंद पत्ति, रुदन की पावाज सीत्कार । बैठे चंद अजचंद पूरन सरद में। -वाल उदा० मन में विराम, तब बन मै विराम कैसो, सीझना-क्रि० स० [सं० सिख] १. पूरा होना छांड़यो जब धाम सीत घाम तब सीवी २. पकना, चुरना। कहा । उदा० सीझो वह बात पावे रात पीरे पात पये सीवे-संज्ञा, स्त्री० [सं० सीमा], सीमा हद, निकट सीझी नहीं कान्ह तुरीमी बह पातु है। पास। -डाधम उदा० ताल ते बागिन बाग तें तालनि ताल सीठी-वि० [सं. शिष्ट ] फीकी, स्वाद रहित तमाल की जात न सीवै। -केशव नीरस । संडाहल-संज्ञा, पु० [सं० सुडाल] हाथी । उदा० मोतें उठी है जो बैठे परीन की सीठी क्यों उदा० सुन्दर चाल निरख संडाहल धूर सीस पर बोली मिताइल्यौ मीठी । -दास डारै। -बकसी हंसराज जा छवि मागे छपाकर छांछ बिलोकि सुधा | मृगपति देखि ज्यों, भजत झुड सुंडाल को। बसुधा सब सीठी । -देव । -दास -देव For Private and Personal Use Only

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