Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 234
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंधूप सिलसिली जु सोने ही की धांट घन मानहु बिमात के।। उदा० पांवड़े डराये द्वार कलस धराए चारु -केशव अमित कराए सोमा तोरन के सिय की। सिंधूप-संज्ञा, पु० [सं० सिंदूर पुष्पी ] एक -रघुनाथ प्रकार का पौधा जिसमें लाल फूल लगते हैं | सिरकटा-संज्ञा, पु० हिं० सिर+कटना ] वीर पुष्पी। १. शृगाल, २. दूसरे का अनिष्ट करने वाला उदा० माछो फूल सिंधूप को माछे पिय के हाथ (वि.) चले बाम के धाम को मोतन चितवत । उदा० १. साहस की ठौर भीर परे ते सिरकटा जाथ। --मतिराम है, सकतिन ह सौ लरिकानि को तजत हैं। सिंहोवरि-वि.सं० सिंह +उदर ] सिंह के -सेनापति समान चीण कटि वाली। सिरकत-संज्ञा, स्वी.[प्र. शिर्कत] साझेदारी, उदा० सकल सिंगार करि सोहै पाजु सिहोदरि, मागीदारी २. सहयोग, सम्मिलन । सिंहासन बैठी सिंहबाहिनी भवानी सी। उदा० माला यह लीजै मंत्र दीजै दंडवत करौ मंत्र ले रहो न गुरुदेव सिरकत हो । सिता-संज्ञा, स्त्री० [सं०] १. चीनी, खांड़, -देव शक्कर २. मिश्री। सिरगा-संज्ञा, पु.?] एक प्रकार का घोड़ा । उदा० सुनि मुनि नारि, उठि धाई मनुहारि करि, उदा० सिरगा मुकि भरत बैरि बिदारत निपट सिता दधि पायस परसि ल्याई थार में । निकारत अति न्यारी । --पद्माकर -देव सिरदच्छी-वि० [सं० सदुश] समान, सदृश । सिताब-संज्ञा, स्त्री० [सं० सिता=मल्लिका उदा० तेरी सी मांकि तुही नहि मानत काम की +फा० माब-मकरंद कांति] मोतिया या कामिनी तो सिरदच्छी । -गंग १. मल्लिका का मकरंद । सिरनेत-संज्ञा, पु० [सं० शर=चिता + उदा० माधवीन मालती में, जही में न जोयत | नियति-संकल्प ] १. चिता में जलने का __ में, केतकी न केवड़ा में, सरस सिताब में । संकल्प. इरादा २. साफा, पगड़ी। -वाल । उदा० १. त्यों सिरनेत सती धरि के घर के सिताबी-संज्ञा, स्त्री० [फा० शिताब] जल्दी, फिरिबे कहें चित्त घरैना। -बोधा शीघता। २. कढ़ि खेत में ठाढ़ो भयो सिरनेति घरि उदा० कूबरी को कूब काटि लाय दे सिताबी हमैं, तेहि बार। -बोधा टोपी कर ताकी तब गोपी जोगनी बनें। सिरिफ-वि० [अ० सिर्फ] १. शुद्ध, २. पवित्र --ग्वाल केवल, मात्र । सिपर-संज्ञा, स्त्री० [फा०] ढाल, वह प्रस्त्र उदा० १. घांघरो सिरिफ मुसुरू को सो हरित जिससे तलवार की चोट या प्रहार रोका जाता रग भंगिया उरोज डारे हीरन के हार को। -तोष उदा. सार के प्रहार सांग सिपर ललार पेलि. सिरी-वि० [सं० शील शीतल, ठंडा। ऐसे ठौर सिरदार सोर हय हर के। उदा० सुमही पकेली पौर संग म सहेली कहि तोष तूं मबेली कासो होती सिरी ताति सिप्पै- संज्ञा, स्त्री.[?] एक प्रकार की छोटी तोप २. निशाना [फा०]। सिरे-वि.हि. सिर] श्रेष्ठ, बड़कर। उदा० छुटे सब्ब सिप्पे करें दिग्ध टिप्पे सबै सत्र उदा० पद्माकर स्वादु सुधा तें सिरै मधु ते महा छिप्पे कहूँ हैं न दिप्पे । -पदमाकर माधुरी जागती हैं। . -पदमाकर सिफाकंव-संज्ञा, पु० [सं०] कमलकंद । सिलसिली-वि० [सं० सिक्त] १. चिकना २. उदा० किधों पमही में सिफाकंद सोहै। किधों पा, गीला ३. फिसलनदार। पदम के कोष पदमा विमोहै। --केशव उदा० १. ऐसी सिलसिली पोप संदर कपोलनि सिय-संज्ञा, स्त्री॰ [सं० श्रिया] शोमा, प्रभा की खिसिल खिसिल परै डीठि जिन पर ते। २. मंगल, कल्याण । --सुन्दर -तोष For Private and Personal Use Only

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