Book Title: Ritikavya Shabdakosh
Author(s): Kishorilal
Publisher: Smruti Prakashan

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Page 223
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वुराना ( २०९ ) संभ्रम वुराना-क्रि० स० [सं० वर=हिं० भोराना] 1 प्रत्य०] नववयस्का, नवयुवती, नायिका। धीरे धीरे समाप्त होना । उदा० आँख झपकारी, चढ़ी नींद की खुमारी, उदा० देखत वुरै कपूर ज्यौ उप जाय जिन, लाल भारी तऊ वैसवारी, बाट जोवै बनवारी छिन छिन जाति परी खरी छीन छबीली की । -रवाल बाल। --बिहारी व्याउर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० बिमाना=जन्म देना वैरोचन-संज्ञा, पु० [सं० विरोचन] सूर्य २. बच्चा जनने वाली, बच्चा पैदा करने वाली। अग्नि ३. प्रकाश । उदा० न्याउर के उर की पर पीर को बांझ उदा०१. हरी बेली बाग की हवेली में नवेली भौर, समाज में जानत को है। -बोधा मोर ही ते गुंज ह्वाँ न भानु मौन परसै। ब्वै-वि० [सं० उदित, प्रा० उम] उदित, निकला ऐसे पल रोचन वैरोचन को जैसो बास. हुआ, प्रकट । तीसरो त्रिलोचन को लोचन सो दरसै । उदा० सुबरन सूरज प्रकास मानौ ब्वै रहयो । -बेनी प्रवीन -नरोत्तमदास वैसवारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० वयस+हिं० वारी । संकरषन--संज्ञा, पु० [सं० संकर्षण] १. शेषनाग | हिय फट्यो । -गंग २. बलराम ३. खींचने वाला। संख-वि० [सं० शंख] अत्यन्त साफ, उज्जवल, उदा. १. मानो सनक्षत्र शिशुमार चक्र कुंडली । २. दस खर्व की संख्या । में सफरषन अनल मभक महराति है। उदा० नील के बसन क्यों बिगारत ही बेही काज २. काम को प्रहरषन कामना को बरषन । बिगरै तौ हम पै बदल संख लीजिये। -पजनेश -दास कान्ह सँकरषन सब जगको जानिये। संज्ञा-संज्ञा, स्त्री० [सं०] संकेत, इशारा । --केशव उदा० न्यारे के सदन तें उड़ाई गुड़ी प्रान प्यारे संकासक-वि० [ सं संकाश-सदृश ] सादृश संज्ञा जानि प्यारी मन उठी अकुलाइ के। वाली। -दास उदा० किंधौ राज हंसनि की संकासक केसोदास संजति - वि० [सं० संयुक्त संयुक्त, सहित, युक्त किधी कलहंसनि की लाज सी लगति है। मिला हुआ। -केशव उदा० नूपुर संजति मंजु मनोहर, जावक रंजित संकु-संज्ञा, स्त्री० [सं० शंकु] बी २. नुकीली कंज से पाइनि। -देव वस्तु, खूटा । संपद- संज्ञा, स्त्री० [सं० संपद] ऐश्वर्य, वैभव उदा० कपट बचन अपराध तें निपट अधिक दुख उदा० कर पद पदम पदमननी पधिनी पदम सदन दानि । जरे अंग में संकु ज्यों होता विथा । सोमा संपद सी पावती । -देव की खानि । - मतिराम संपै-संज्ञा, स्त्री० [सं० सम्पत्ति] धन, सम्पत्ति । संकुल-संज्ञा, पु० [सं०] भीड़, समूह । उदा० बारि के बलूलनिकि बनिज बजार बैठे उदा० सारद सिंदूर सिर सौरभ सराहैं सब. सेन | सपने की संप गनि, सौप बड़े थरपै ।-देव साजि संकुल प्रभा सी सारियत है। स भ्रम-संज्ञा, पु० [सं०] आतुरता, घबराहट, -गंग व्याकुलता २. आदर, गौरव । संकुलना-क्रि० प्र० [सं० शंक] भयमीत होना उदा० १. केशवदास जिहाज मनोरथ, संभ्रम घबरा जाना । विभ्रम भूरि भरे भय । -केशव उदा० ककुम कुंभि संकुलहि, गहरि हिमगिरि देखि चतुराई मन सोच भयो प्रीतम को २७ For Private and Personal Use Only

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