Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1 Author(s): Khubchand Shastri Publisher: Digambar Jain Samaj View full book textPage 6
________________ न पूजा की सिलिके कारण बातों कर्म और उसके साषय, अल्प सापथ, मसापच मेदोका एवं कर्मायाँसे सम्बंधित चार आश्रम और चातुर्वण्य विशिष्टताका वर्णन भी इसमें रहे यह स्वाभाविक है क्योंकि पार आश्रमों की उत्पत्ति इसी अंगमें बताई है अत एच इस अंगका वर्गनीय विषय केवल ११ प्रतिभा ही नहीं है। यह स्पष्ट है। इसके ग्यारह लाख सत्तर हजार पद हैं। इसमें भावक सम्बन्धी ग्यारह प्रतिमा रूप प्रोका जिस तरह बर्णन पाया जाता है इसाप्रकार आवश्यक क्रियाकाएड अभिषेक पूजा प्रतिष्ठा दान आदि छह आवश्यक कर्म और तत्सम्बन्धी मन्त्र मागका एवं चार आश्रम सम्बन्धी विषयोंका भी श्री महावीरभगवान् के अवरूप कथनका ६४ ऋद्धियोंसे युक्त श्रुतकेवली गणधरदेव द्वारा प्रन्थन किया गया है । यथा ब्रमक्यं गृहस्थश्च वानप्रभ्यश्च भिक्षुकः । चत्वार आश्रमा फ्ते मप्तमांगाद विनिर्गताः ।। प्रकृत रत्नकरण्ड श्रावका वारमें वर्णित ग्यारह प्रतिभाओंके विषयका सम्बन्ध भी उपामकाध्ययनसे ही है। और शेष सम्पदर्शन सम्परझान सल्लेखना के विपक्का सम्बन्ध नायधर्मकथा (शासधर्मकथा) अंग जाननभादपूर्व प्रत्याख्यान पूर्व से है । किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि भगवान् समन्त भद्रसे पहले इन विषयों का वर्णन अन्य आचार्यों ने किया हीनदा । आचार्य यर कुन उमास्थामा मादिफ बाहुड मोनशास्त्र आदिमें भी इन विषयों का संग्रह पाया जाता है। अत एव यह कहने को आवश्यता नहीं है कि ये सनातन सर्वशोक परस्परीणही है। समन्तभद स्वामाने भी प्राचार्य प.म्परा से चले बाये आगमके आधार पर ही तो यहा विषय निबद्ध किये हैं। फिर भी ग्रह सर्वथा सत्य है कि उन को यह रचना अत्यन्त महत्व रखती है। इसमें यद्यपि मुख्यतया भावरूप एकदेश रत्नत्रयका वर्णन ही प्रधान है। साथ ही इतना प्रौढ और विशाल अर्थक पारका गर्भित करता है कि इसकी पद्यरचना को कारिका ही कहा जासकता है। फिर भी इस में उनकी स्वाभाविक कवित्व शक्ति एव दार्शनिकता दृष्टगोचर हाए बिना नहीं रहती। निःसन्देह आचार्य ने केवल १५० कारिकाओंमें अपने विवक्षित महान विषयको जिस तरह योजरूपमे संनित किया है इससे उनकी सूत्रष्टित्व अथवा बीजाष्टित्व के साथ साथ विशालभतसमुद्रके मन्थन करने वाली अलमम्पासका भी पारच्य प्राप्त हुए विनानहा रहता। इस रचनाकेदाग छ प्रकुन विषयको जीवित रखने का हा प्रयास नहीं किया हे प्रत्युन ऐवयुगीन पूर्ण रत्नश्यधर्मके यथावत् पातान करने में असमर्थ मुमुक्षुओं केलिये सामर्थ्य प्रदान करनेमाला कल्याणकारी मार्ग प्रस्तुत करके संसारदुखोंका उच्छेदन एज मोस साधना के लिये हस्ताबलम्बन देकर तीर्थ र भगवानके अनम्तर गणवर देव के समान कार्य किया है जिसके लिये मुम भब्य विद्वान अवश्य ही उनके चणी हैं। इस ग्रन्थ की अभी तक अनकों टीकाएं लिखी गई हैं संस्कृन टीका तो एक प्रभाबन्द्र आचार्य की ही प्रसिद्ध है। अभी कुछ अफ पूर्व स्व० मिद्धान्तशास्त्री प- गौरीलालजी की निक्ति भी जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाके द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी । हिंदी टीकारें अनेक हैं। फिर भी कईवर्ष से हमारी भी भावना की कि इसक अभिप्राय को स्फुट करनेके लिये यथाशक्ति और यथामनि टीकाके हो रूपमें लिखना । परन्तु विचारों को कार्यान्वित होन में कई वर्ष अनेकों बाधाम के कारण निकल गये । अभी भी परे अन्य की टीका नहीं लिखी आसकी है केवल सम्यग्मशनका वर्णन करनेवाले पहले अपायका ही यह प्रथम भाग है। आगे के भाग का मी लिखना शलू किया है परन्तु वह कर पूरा होगा यह अभी हम निरिक्त नहीं कह सकते । फिर भी जहां तक शक्य होगा जल्दी पूरा करनेका प्रयल किया जायगा। हमने अपनी इस टोकामें प्रत्येक कारिकाके सामान्य अर्थको लिखने के बाद प्रयोजन , शब्दों का सामान्य दि. शेष भर्थ, और तात्पर्ण इसतरह तीन भागों में अभप्राय फुट करनेका प्रयत्न किया है। अपने उपयोग कल्याणकारी विषयमें लगाये रखने को सदभावना से ही विना किसी की प्रेरणा के ही हमने यह प्रयास किया है। फिर भी इसके प्रकाशन के विषयमे हमारे बड़े भाई स्व. उट विद्वान पं० मशीधरजी संसापुरके सिवाय खासकर श्रीशान्तिसागर (भारतीय) जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाफे महामी एवं प्रबंध विद्वान् प्र. भीलालजीको प्रेरणा हमको मिली है जिसके कि फलस्वरूप इसी संस्थासे यह प्रथम भाग प्रकाशित होरहा है।Page Navigation
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