Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5 Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur View full book textPage 8
________________ प्राशीर्वाद धर्म, जाति और समाज की स्थिति में जहां संस्कृति मुल कारण है, वहां इनके संवर्धन मोर संरक्षण में साहित्य का मी महत्वपूर्ण स्थान है । संस्कृति एवं साहित्य दोनों जीवन और प्राणवायु सदृश परस्परावेनी हैं। एक के बिना दूसरे की स्थिति संभव नहीं । अतः दोनों का संरक्षण अावश्यक है। आदि युगपुरुष तीर्थ कर वृषभदेव से प्रतित दिव्य देशना ने तीर्घ कर वर्तमान पर्यम्त भौर पदावधि जो स्थिरता धारण की, वह साहित्य की ही देन है। यदि आज युग में प्राचीन साहित्य हमारे बीच न होता तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त प्राय था। भारत के प्रभून शास्त्रागारों में आज भी विपुल साहित्य सुरक्षित है । न जाने, किन किन महापुरुषों, धर्मप्रेमियों ने इस साहित्य की कैसे कैसे प्रयत्नों से रक्षा की। पिछले समयों में बड़े बड़े उतार चढाव प्राये । मुगल साम्राज्य और विद्वेषियों के कम कब कितने कितने धर्मद्रोही झंझावात चले, इसका तो अतीत इतिहास साक्षी है । पर हां यह अवश्य है कि उस काल में यदि संस्कृति, साहित्य और धर्म में प्रेमी न होते सो प्राज के भण्डारों में विपुल माहित्य सर्वथा दुर्लभ होता । संतोष है कि ऐसे साहित्य पर विद्वानों का ध्यान गया और प्रब धीरे धीरे तीव्रगति से उसके उद्धार का कार्य जनता के समक्ष प्राने नगा, यह सुखद प्रसंग है। राजस्थान के शास्त्र मण्हारों की मय सूत्री का पंचम भाग हमारे समक्ष है । इसके पूर्व पार भागों में लगभग पच्चीस हजार यों की सूची प्रकाशित हो चुकी है। इस भाग में भी लगभग बीस हजार प्रथों को नामावली है । प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी सभी भाषामों में लगभग एक हजार लेखकों, प्राचार्यो, मुनियों और विद्वानों को रचनायें हैं। इन रचनामों में दोहा, चोपई, रास, फागु, लि, सतसई, बावनी, तक मादि के माध्यम से तत्व, पाचार विचार एक कथा संबंधी विविध ध है। श्री डा० कस्तुरचन्द कासलीवास समाज के जाने माने शोध विद्वान हैं । भंडारों के शोष कार्य पर इन्हें पो--एच. डी. भी प्राप्त है। हरसूची के उक्त संकलन, संपादन में इन्हें लगभग बीस वर्ष लग चुके हैं और प्रभी कायं शेष है । इस प्रसंग में डा० साहब एवं उनके सहयोगियों को पैदल, ऊट गाड़ी व कंटों पर सैकड़ों मीलों की यात्रा करनी पड़ी है, उन्होंने अथक परिथम किया है। यह ऐसा कार्य है जो परम पावश्यक था और किसी का इस पर कार्य रूप में ध्यान नहीं गया। डा० साहब के इस कार्य से वर्तमान एवं भावी पीढी के शोधार्थियों को पूरा पूरा लाभ मिलेगा ऐसा हमारा विश्वास है । साथ ही तीर्थ कर महावीर की २५०० की निर्वाण शती के प्रसंग में इस नथ का उपयोग और भी बढ़ जाता है। प्रथ भण्डारों में उपलब्ध तीर्थकर महावीर सम्बन्धी अनेक प्रथाका सल्लेख भी इस सूची में है जिनके भाचार पर तीर्थंकर महावीर का प्रामाणिक जीवन प्रकास में लाया जा सकता है । और भी भनेक ष प्रकाशित किये जा सकते हैं। समाज को इधर ध्यान देना उचित है। ग. साह्य का प्रयास सर्वया उपयोगी एवं अनुकरणीय है ।Page Navigation
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