Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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( पाच )
जीवन एवं ग्रायु के सम् में विशेष प्रकाश पड़ता है । यदि इस प्रशस्ति का सम्बन्ध पं० टोडरमलजी से हो हैं तो फिर टोडरमलजी की आयु के सम्बन्ध में सभी मान्यताएं (धारण:ए। गलत सिद्ध हो जाती हैं। यदि संवत् १७९३ में पंडितजी की आयु १५-१६ वर्ष की भी मान ली जाये तो उनके जीवन की नयी कहानी प्रारम्भ हो जाती है, और उनकी श्रायु २५ २६ वर्ष को न रहकर ५० वर्ष से भी ऊपर पहुंच जाती है लेकिन अभी इस की खोज होना शेष है ।
अलवर
अलवर प्रान्त का नाम पहिले मत्स्य प्रदेश था जो महाभारत कालीन राजा विराट का राज्य था । मछेरी के नाम से अब भी यहां एक ग्राम है। जो मत्स्य का ही अपभ्रंश शब्द है । यही कारण है कि राजस्थान निर्माण के पूर्व अलवर, भरतपुर, बीलपुर और करौली राज्यों के एकीकरण के पश्चात् इस प्रदेश का नाम मत्स्य देश रखा गया था। १९ वीं शताब्दी के पूर्व अलवर भी जयपुर के राज्य में सम्मिलित था लेकिन महाराजा प्रतापसिंह ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और उसका अलवर नाम दिया। अलवर नगर और देहली जयपुर के मध्य में बसा हुआ है ।
जैन साहित्य और संस्कृति का भी अलवर प्रदेश अच्छा केन्द्र रहा है । इस प्रदेश में अलवर के प्रतिरिक्त तिजारा, अजबगढ़, राजगढ, आदि प्राचीन स्थान हैं और जिनमें शास्त्र भण्डार भी स्थापित है। यहां ७ मन्दिर हैं और सभी में ग्रंथ भण्डार हैं। सबसे श्रधिक ग्रंथ खण्डेलवाल पंचायती मंदिर एवं अग्रवाल पंचायती मंदिर में हैं दि० जैन खण्डेलवाल पंचायती मंदिर में कामर स्तोष एवं तत्र को स्वणसरी प्रतियां हैं जो कला की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह द्वारा लिखित आयुर्वेदिक ग्रंथ अमृतसागर' की भी एक उत्तम प्रति है इसका लेखन काल सं० १७६१ है । खण्डेलवाल पंचायती मंदिर के शास्त्र भण्डार में २११ हस्तलिखित ग्रंथ एवं ४६ गुटके हैं जिनमें अध्यात्म बारहखडी (दौलतराम कासलीवाल), यशोधर चरित (परिहानन्द) राजवासिक (भट्टाकलंक) की प्रतियां विशेषतः उल्लेखनीय है ।
शास्त्र भण्डार दि० जैन मंदिर ती
जयपुर से देवली जाने
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वाली सड़क पर स्थित बूमी एक प्राचीन कस्बा है । यह टोंक से १२ मील एवं देवली से मोल है । जयपुर राज्य का यह जागीरी गांव था जिसके ठाकुर रावराजा कहलाते थे । यहाँ एक दि० जैन मंदिर है 1 मंदिर के एक भाग पर एक जो लेख प्रकित है उसके अनुसार इस मन्दिर का निर्माण सं० १५८५ में हुआ था और इसीलिये यहां का ग्रंथ भण्डार भी उसी समय का स्थापित किया हुआ है। यहां के प्रध भण्डार में १४३ हस्तलिखित ग्रंथ हैं। जिनमें अधिकांश ग्रंथ हिन्दी भाषा के हैं । ग्रंथ भण्डार में सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि संवत् १५०० में लिपि को हुई. जिनदत्त कथा है। विद्यासागार को हिन्दी रचनाएं भी यहां संसद्धीत हैं जिनमें सोलह स्वप्न, जिनराज महोत्सव, सप्तव्यसन सवैया, श्रादि के नाम उल्लेखनीय है । इसी तरह तानुशाह का भूलना, गंग कवि का 'राजुल का बारह मासा' हिन्दी की अज्ञात रचनाएं हैं।
गंग कवि पर्वत धर्मार्थी के पुत्र थे । भट्टारक शुभचन्द्र के जीवंधर स्वामी चरित्र की संवत् १६१५ में लिखी हुई पाण्डुलिपि भी उल्लेखनीय है। बाए कवि कृत कलियुगचरित्र ( संवत् १६७४ ) की हिन्दी को कृति है ।