Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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तीन )
पचनन्दि पंचविंशनि की ३५, ऋपमदास निगोत्या के मूलाचार भाषा की ३३, शुमचन्द्र के ज्ञानारणव की ३४, भूधरदास के वासभावान को २५.
पापियां उपलब्ध हुई है। सबसे अधिक महाकवि भूबरदास के पार्श्वपुराण की पागडुलिपियां हैं जिनकी संख्या ५३ है । पाण्यपुराण का समाज में कितना अधिक प्रचार या और स्वाध्याय प्रेमी इसका कितनी उत्सुकता से स्वाध्याय करते होंगे यह इन पाण्टुलिपियों की संख्या से अच्छी तरह जाना आ सकता है । पारवपुराण की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि संवई १७६४ को है जो रचना काल के पांच वर्ष पश्चात् ही लिखी गयी थी । इसी तरह प्रस्तुत भाग में एक हजार से भी अधिक ग्रंथ प्रशस्तियां एवं लेखक प्रशस्तियां मी दी गयी है जिनमें कवि एवं काव्य परिचय के अतिरिल कितनी ही ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी मिलती है । इतिहास लेहन में ये प्रशस्तियां अत्यधिक महत्वपूर्ण सहायक सिद्ध होती है। उनमें जो तिथि, काल, बार नगर एवं शासकों का नामोल्लेख किया गया है वह अत्यधिक प्रामाणिक है और उन पर सहमा अविश्वास नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत ग्रंथ सूची में सैकड़ों शासकों का उल्लेख है जिनमें केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं प्रादेशिक शासकों के शासन का वर्णन मिलता है। इसी तरह इन प्रशस्तियों में अनेकों ग्राम एवं नगरों का भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
इस भाग में राजस्थान के विभिन्न नगरों एवं ग्रामों में स्थित दिगम्बर जैन मन्दिरों में संग्रहीत ४५ शास्त्र मण्डारों की हस्तलिखित पाहुलिपियों का परिचय दिया गया है । ये शाम भण्डार छोटे बड़े सभी स्तर के हैं । कुछ ऐसे पथ भण्डार हैं जिनमें दो हजार से भी अधिक पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता है तथा कुछ शास्त्र भण्डारों में १०० से भी कम हस्तलिखित ग्रंथ हैं । इन भण्डारों के अवलोकन के पश्चात् इतना कहा जा सकता है कि १५ वीं शताब्दी से लेकर १८ वीं शताब्दी तक ग्रंथों को प्रतिलिपि तथा उनके संग्रह का अत्यधिक जोर रहा । मुसलिम काल में प्रतिलिपि की गयी पाण्डुलिपियों की सबसे अधिक संख्या है। प्रथ भण्डारों के लिये इन शताब्दियों को हम उनका स्वर्णकाल कह सकते हैं। आमेर, नागौर, अजमेर, सागवाड़ा, कामां, मोजमावाद,
दी. टोडारायसिंह, चमावती ( चाटमू ) प्रादि स्थानों के शास्त्र भण्डार इन पातान्दियों में स्थापित किये गये और इन्हीं स्यानों पर ग्रयों की तेजी से प्रतिलिपि की गयी। यह सुग भट्टारक संस्था का स्वर्ण युग था ।
हत्य लेखन एवं उनकी सुरक्षा एवं प्रचार प्रसार में जितना इन भट्रारकों का योगदान रहा उतना योगदान किसी साधु संस्था एवं समाज का नहीं रहा । भट्टारक सकलफीति से लेकर १८ वीं शताब्दी तक होने वाले भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति तक इन भट्टारकों ने देश में जबरदस्त साहित्य प्रचार किया और जन जन को इस पोर मोड़ने का प्रयास किया।
लेकिन राजस्थान में महापंडित टोडरमल जी के क्रान्तिकारी विचारों के कारण इस सस्था को जबरदस्त प्राधास पहुंचा और फिर साहित्य लेखन का कार्य अवरुद्ध सा हो गया। जयपुर नगर ने सारे जैन समाज का मार्गदर्शन किया और यहां पर होने वाले पं. दौलतराम कासलीवाल, पं. टोडरमल. भाई रायमल्ल, ५० जय चन्द छाबड़ा, पं सदासुम्सदास कासलीयाल जैसे विद्वानों की कृतियों की पाबुलिपियां तो होती रही किन्तु प्राकृत, संस्कत, अपभ्रंश एवं हिन्दी राजस्थानी भाषा कृतियों की सर्वथा उपेक्षा कर दी गयी। यही नहीं ग्रंथों की सुरक्षा की ओर भी काई ध्यान नहीं दिया गया। पोर हमारी हमी उपेक्षा मृत्ति से पथ भण्डारों के ताले लग गये। सैंकडों नथ चूहों और दीमकों के शिकार हो गये और संस्कृत एवं प्राकृत की हजारों पाण्डुलिपियों को नहीं समझ सकने के कारण जल प्रवाहित कर दिया गया ।