Book Title: Prayaschitta Samucchaya Author(s): Pannalal Soni Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha View full book textPage 4
________________ प्रायश्चित-समुच्चय । की उपासना करता है। ग्रन्थकर्ता भगवान् गरुदास आचार्य भी रत्नत्रयकी विशुद्धिके इच्छुक हैं। अतः वे रत्नत्रयस विशुद्ध पंच परमेष्ठीको नमस्कार करते हैं। श्रीगुरु नाय पंच परमेष्ठोका है। यह नाम इस व्युत्पत्तिसे लब्ध होता है । श्रीनाम सम्पूर्ण वस्तुओंकी स्थिति जैसी हैं वैसीको वैसी जाननेमें समर्थ ऐसी परिपर्ण और निर्मल केवलज्ञानादि लक्ष्मीका है उस लक्ष्यो कर जो संयुक्त हैं वे श्रीगुरु हैं। ऐसे श्रीगुरु तीनकालके विषयभूत पंच परमेष्ठी ही होते हैं। तथा वे श्रीगुरु रत्नत्रय कर विशुद्ध हैं। यदि वे स्वयं रलायसे विशुद्ध न हों तो औरोंकेलिए रत्नत्रयको विशुद्धिके कारण नहीं हो सकते । सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यक्चारित्रका नाम रत्नत्रय है । संयम नाम सम्यक्चारित्रका है वह पचिपकारका है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धिः सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात । यह पांचों प्रकारका चारित्र सम्यग्ज्ञानपूर्वक होता है ओर सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। अतः संयम विशेषणकी सामर्थ्यसे वे रत्नत्रयके गंभीर और उदार समुद्र हैं यह अर्थ लब्ध होता है॥१॥. ... आगे शास्त्र-समुद्रको स्तुति करते हैं- . भावा यत्राभिधीयते हेयादेयविकल्पतः।.. . अप्यतीचारसंशुद्धिस्तं श्रुताब्धिमभिष्टुवे ॥२॥ .१। विकलिानः इत्यपि वा।Page Navigation
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