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श्रीप्रवचनसारटीका । द्रव्यके सदृश होती है । जब ईश्वर एक अखण्ड अमूर्तीक है तब उसके खंड नही होसक्ते । जब खंड नहीं होसक्ते तब पृथक् २ जीव या परमाणु या स्कंध जो जगतमें प्रगट हैं वे नहीं बन सक्ते। यदि अखंड ईश्वरके खंड होना भी मानले तो उस अखडके खंड भी उसी तरहके होगे । जैसे शुद्ध चांदीके खण्ड भी शुद्ध ही होते हैं ऐसी दशामें शुद्ध ज्ञानमय अमूर्तीक ईश्वरके सब ही खंड शुद्ध ज्ञानमय अमूर्तीक होगे । यदि ऐसा होता तो जगतमे कोई भी जीव अशुद्ध रागी द्वेषी या अज्ञानी नहीं मिल सका । तथा अमूर्तीकसे मूर्तीक जडका बनना तो विलकुल असंभव है और जगतमे हम जड़ अचेतनको प्रत्यक्ष देखरहे हैं। हमारा शरीर ही जिन परमाणुओसे बना है वे जड़ अचेतन है। जगतमे यह भी नियम है कि जो नष्ट होता है उसमे भी पहलेके ही गुण रहते हैं-एक मिट्टीके घडेको फोडकर चूराचूरा करने पर भी मिट्टीका ही स्वभाव बना रहता है । इससे प्रत्यक्ष प्रगट जड़ व जीव सब एक समय ईश्वरमय अमूर्तीक चेतन हो जायगे यह बात असंभव है। यदि ईश्वर रूप जगत होता तो जैसे ईश्वर आनन्दमय है वैसे यह जगत भी आनन्दमय होता-कहीं पर भी दुःख, क्लेश या शोकका कारण न बनता। इस तरह विचार करनेसे एक ही ईश्वरकी अनादि सत्ता सिद्ध नहीं होती किन्तु सर्व ही जीव व सर्व ही परमाणु व अन्य आकाशादि ये सर्व ही द्रव्य सत्रूप हैं, सदासे है व सदा ही रहेंगे, यही बात समझमे आती है।
इसी सत् लक्षणको विशेष स्पष्ट करनेके लिये आचार्यने दूसरा लक्षणबताया है कि द्रव्यमे सदा उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना होता है।