Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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द्वितीय खंड।
[३८१ इस ज्ञेयाधिकारका कुछ सार ।
पहले अधिकारमे आचार्यने ज्ञान और सुखकी महिमा वताई. थी, कि स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान, और शुद्ध सुख आत्माकी ही सपत्ति, है-ये,ही उपादेय है। इस दूसरे अधिकारमे उस स्वभावकी प्राप्तिके. • लिये, जिनर तत्वोका शृद्धान करना जरूरी है उनका स्वरूप कहा है क्योकि, विना वस्तुके स्वरूपको जाने त्यागने योग्यका त्याग
और ग्रहण करने योग्यका ग्रहण नही हो सक्ता है । इस ज्ञेय अधिकारमे, पहले ही द्रव्यका सामान्य, स्वरूप है कि द्रव्य सत् स्वरूप है, सत्तासे अभिन्न है इससे अनादि अनंत है-न कभी पैदा हुआ व न कभी नष्ट होगा। इस कथनसे इस जगतकी द्रव्य अपेक्षा नित्यता व अकृत्रिमता दिखाई है । फिर बताया है कि वह सत् रूप द्रव्य कूटस्थ नित्य नहीं है उसमे गुण और पर्यायें होते है। गुण सदा बने रहते है इससे ध्रौव्य है । गुणोमें जो अवस्थाए पलटती हैं वे अनित्य है अर्थात् उत्पाद व्ययरूप हैं । जिस समय कोई अवस्था पैदा होती है उसी समय पिछली अवस्थाका व्यय या नाश होता है- मूल द्रव्य बना रहता है । इससे द्रव्य उत्पाद व्यय प्रौव्य स्वरूप भी है। फिर यह बताया है कि द्रव्य और गुणोंका तथा पर्यायोंका प्रदेशोकी अपेक्षा एकपना है। नितना बड़ा द्रव्य है उसीमे ही गुणपयाये होती हैं-उनकी सत्ता द्रव्यसे जुदी नहीं मिल सक्ती है तथापि सज्ञा सख्या लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा द्रव्य गुणीमे और उसके गुण पर्यायोमे परस्पर भेद है। इस लिये द्रव्य भेदाभेद स्वरूप है । फिर जीवका दृष्टात देकर स्पष्ट किया

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