Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 400
________________ द्वितीय,खंड। मेरा वार वार नमस्कार हो ऐसा कहकर श्री कुन्दकुन्द महाराजने अपनी उत्कृष्ट भक्ति दिखाई है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने परम मंगलस्वरूप पाचो परमेष्ठियोंको नमस्कार किया है। दो दफे नमो शब्द कहकर वार वार नमस्कार करके अपनी गाढ़भक्ति उनके शुद्ध गुणोमें दिखलाई हैं । अरहंत' और सिद्ध तो रत्नत्रयकी आराधनासे उसके पूर्ण फलको पाचुके हैं-अनन्तज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई हैं । आचार्य, उपाध्याय, साधु अभी रत्नत्रयकी आराधना कर रहे हैं परन्तु अवश्य अरहंत और सिद्ध होंगे इस लिये भावी नैगमनयकी अपेक्षा उनके भी वे ही विशेषण दिये हैं जो अरहत व सिद्धोंके दिये हैं। वे शीघ्र ही केवलज्ञानी व अनन्त सुखी होगे । इस दूसरे अध्यायकी पूर्णतामें मंगलाचरण करके आचार्यने यह बतलाया है कि हम सबको हरएक कार्यके प्रारम्भमे व अन्तमें इन पंचपरमेष्ठियोंका गुण स्मरण रूप मगलाचरण करना चाहिये जिससे हमारे भाव निर्मल हों और हम पापकर्मोको क्षयकर सकें, जो पाप कर्म हमारे कार्यमें बाधक है । पाप क्षयसे हमारा कार्य निर्विघ्न समाप्त होनायगा । अन्तमे मंगलाचरण करनेसे उनका उपकार स्मरण है व भविष्यके लिये पापोसे बचनेकी भावना है ॥११॥ इस तरह नमस्कार गाथा सहित चार स्थलोमें चौथा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस तरह "अस्थित्त णिछिदस्स हि" इत्यादि ग्यारह गाथा तक शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग इन तीन उपयोगकी मुख्यतासे पहला विशेष अंतर अधिकार है फिर 'अपदेसो परमाणू पदेसमत्तोय' इत्यादि नौ गाथाओ तक पुद्गलोंके पर•

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