Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 410
________________ द्वितीय खंड भेदशानोच्छन कलनाच्छुद्धतत्वोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणा सवरेण । विभ्रतोषं परमममला लोकमग्नानमेक, [ ३८६ ARA ज्ञान ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८ ॥ भावार्थ - धारावादी लगातार भेदविज्ञान की भावना करते रहना चाहिये, उस वक्त तक जबतक कि ज्ञान ज्ञानमें न प्रतिष्ठित हो जावे अर्थात जबतक केवलज्ञान न हो, बराबर भेदविज्ञानकी भावना करता रहे । आजतक जितने जीव सिद्ध हुए हैं सो सब भेदविज्ञान के प्रतापसे सिद्ध हुए है और जिनको भेद विज्ञानका लाभ नहीं हुआ है वे सब बधे पड़े हैं । भेदज्ञानके बारवार दृढ़तासे अभ्यास करनेसे शुद्ध आत्मतत्वका लाभ या ध्यान होता हैशुद्धात्मध्यानसे रागद्वेषका ग्राम नष्ट होजाता है। तब नए कर्मोंका संबर हो जाता है तथा पूर्वकर्मकी निर्जरा होकर परम संतोषको रखता हुआ निर्मल प्रकाशमान शुद्ध एक उत्कृष्ट केवलज्ञान निरंतर अविनाशीरूपसे स्वाभाविक ज्ञानमें उद्योतमान रहता है । इस लिये हरएक भव्यभवको अपना नरजन्म दुर्लभ जान इसको सफल करनेके लिये स्याद्वादनयके द्वारा अनंत स्वभाववाले जीवादि पदाथका स्वरूप जिनवाणीके हार्दिक अभ्यास व मननसे जान लेना चाहिये व जानकर उनपर अटल विश्वास रखकर उनका मनन करनेके लिये निरन्तर देवभक्ति, सामायिक, स्वाध्याय, गुरुजन संगति, संयम व दानका अभ्यास करना चाहिये । इसीके प्रतापसे जब निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त होजाता है तब आत्माका भीतर झलकाव होता है और अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद आता है। 1

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