Book Title: Pravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 369
________________ ३४८ ] श्रीप्रवचनसारटीका | तद्वस्तुस्थिति बोधवन्धधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वेषमयी भवन्ति सहजा मुञ्चन्त्युदासीनताम् ॥ २९ ॥ १० ॥ भावार्थ - यह आत्मा अपने स्वभावमें पूर्ण एक अविनाशी शुद्ध ज्ञानकी महिमाको रखनेवाला है । इसलिये यह ज्ञाता ज्ञेय पदार्थों के निमित्तसे उसी तरह किसी प्रकार भी विकारको प्राप्त -नहीं होता जिस तरह दीपकका प्रकाश प्रकाशने योग्य पदार्थक निमित्तसे विकारी नहीं होता। खेद है कि अज्ञानी लोग ऐसी वस्तुकी मर्यादाके ज्ञानसे रहित निर्बुद्धि होकर क्यो रागद्वेपमयी होते है और अपनी स्वाभाविक उदासीनताको छोड़ बैठते हैं । - प्रयोजन यह है कि स्वाभाविक समतामे तिष्ठना ही हितकारी है ॥ १०१ ॥ इसतरह आत्मा अपने परिणामोंका ही कर्ता है । द्रव्यक- मौका कर्ता नहीं है । इस कथनकी मुख्यतासे सात गाथाओं में छठा -स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह " अरसमरुव " इत्यादि तीन गाथाओंसे पूर्व में शुद्धात्माका व्याख्यान करके शिष्यके इस प्रश्नके होने"पर कि 'अमूर्त आत्माका मूर्तीक कर्मके साथ किस तरह वंध होसक्ता है' इसके समाधानको करते हुए नय विभागसे बंध समर्थनकी मुख्यतासे उन्नीश गाथाओंके द्वारा छः स्थलोसे तीसरा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ । इसके आगे बारहगाथातक चार स्थलोंसे शुद्धात्मानुभूति लक्षण विशेष भेदभावनारूप चूलिकाका व्याख्यान करते है । तहाँ शुद्धात्माकी भावनाकी प्रधानता करके "ण जहदि जो द ममत्ति " इत्यादि पाठक्रमसे पहले स्थलमें गाथाएं चार हैं। फिर शुद्धा

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