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द्वितीय खंड।
[४९ व्यय न माने तो उत्पाद न होगा । ध्रौव्य न माने तो उत्पाद व्यय किसमें होगा। इसलिये यह बात विलकुल यथार्थ है कि एक समयमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य तीनोको ही किसी भी सत् पदार्थमे मानना होगा । अन्यथा कोई कार्य नहीं होसक्ता । जैसे नत्र एक काटकी चौकी बनी है तब काष्ठके तखतेकी दशाको बिगाडकर बनी है। नव तखतेका नाश हुआ तव ही चौकीकी उत्पत्ति हुई तथा तखते और चौकी दोनोका आधारभूत लकडी ध्रौव्य रूपसे मौजूद है ही। गोरसको विलोकर जब मक्खन बना तब मरखनका उत्पाद हुआ सो दूधकी दशाको नागकर हुआ है और गोरस दृधमे भी था और इस मक्खनमे भी है । वृत्तिकारने सम्यक्तकी उत्पत्तिका उदाहरण दिया है कि जब सम्यग्दर्शन गुण आत्मामे प्रगट होता है तब मिथ्यात्त्वके उदयका अभाव अवश्य होता है और आत्मा दोनो अवस्थाओमे विद्यमान रहता है । इस कथनसे यह बात दिखलाई है कि किसी पदार्थका सर्वथा नाग या अभाव नहीं होसक्ता है
और न कोई पदार्थ अकस्मात् विना कारणके उत्पन्न होसक्ता है तथा जिसमें नाशपना और उत्पाद होता है वह पदार्थ बना रहता है। मूल पदार्थ यदि न बना रहे तो कोई भी अवस्था उसमें हो नहीं सक्ती । इस कथनसे और भी स्पष्टकर दिया गया है कि यह जगत् अनादिअनन्त और अकृत्रिम है | कारण यही है कि सत् पदार्थ सदा ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूपसे रहता है । जिन पदार्थोका जगतमे समावेश है वे सब पदार्थ सत् हैं और उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप हैं । यह उत्पाद व्यय ध्रौव्यका कथन परस्पर सापेक्ष है इसी बातको स्वामी समंतभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें इस भांति दर्शाया है